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रस |
काव्य को पढ़ने-सुनने या नाटक को देखने से हमें विशेष प्रकार के आनन्द की प्राप्ति होती है. इसी आनन्द को रस कहते हैं. जो लोग रस प्राप्त करते हैं, उन्हें सहृदय या सामाजिक कहा जाता है. इस प्रकार पाठक, श्रोता और दर्शक सामाजिक या सहृदय कहलाते हैं.
रस या आनन्द की अनुभूति में हमारी प्रवृत्तियां सहायक होती हैं. विभिन्न स्थितियों में हमारे मन की अनेक वृत्तियां बनती रहती हैं. चित्त की इन्हीं वृत्तियों को भाव कहते हैं. आचार्यों ने भावों को दो वर्गों में बांटा है-
(१) स्थायी भाव और (२) संचारी भाव .
स्थायी भाव
मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां स्थायी भाव के रूप में जानी गई हैं. इनकी संख्या नौ हैं. ये स्थायी भाव प्रत्येक मनुष्य के मन में सोए रहते हैं और अनुकूल परिस्थिति में जागृत होते हैं. नौ स्थायी भावों रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय, शम अर्थात् निर्वेद के साथ शिशु के प्रति वत्सल (ममता) को संयुक्त कर लेने पर इनकी संख्या १० हो गई हैं. इन्हीं १० स्थायी भावों से १० प्रकार के आनन्द प्राप्त होते हैं. इसीलिए १० स्थायी भावों से १० रसों की उत्पत्ति स्वीकार की गई है. इनका उल्लेख इस प्रकार है-
स्थायी भाव
रस
१. रति: शृंगार
२. हास: हास्य
३. शोक : करुण
४. क्रोध: रौद्र
उत्साह : वीर
जुगुप्सा (घृणा) : विभत्स
६. शम या निर्वेद : शान्त
६. भय : भयानक
८. विस्मय : अद्भुत
१०. वत्सल: वात्सल्य
संचारी भाव
दस स्थायी भावों के अतिरिक्त बहुत से अन्य ऐसे भाव भी हैं जो यथा अवसर उत्पन्न और शमित होते रहते हैं. इनका यथासमय स्थायी भावों के साथ संचरण होता है. इसीलिए इन्हें संचारी भाव कहते हैं. इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है. संचारी या व्यभिचारी भावों की संख्या ३३ मानी गई है. ये हैं-
(१) निर्वेद (२) ग्लानि (३) शंका (४) असूया (५) मद (६) श्रम (७) आलस्य (८) दैन्य (६) चिन्ता (१०) मोह (११) स्मृति (१२) धृति (१३) क्रीड़ा (१४) चपलता (१५) हर्ष (१६) आवेग (१७) जड़ता (१८) गर्व (१६) विषाद (२०) औत्सुक्य (२१) निद्रा (२२) अपस्मार (मिरगी) (२३) स्वप्न (२४) विबोध (जागना) (२५) अमर्ष (२६) अवहित्थ (गोपन) (२७) उग्रता (२८) मति (२६) व्याधि (३०) उन्माद (३१) त्रास (३२) वितर्क (३३) मरण .
इन संचारी भावों से स्थायी भाव पुष्ट होते हैं.
सहृदय के स्थायी भाव को उद्बुद्ध कर उसे रस की स्थिति में लाने वाली सामग्री को रस की सामग्री कहते हैं. नायक-नायिका, उनके हाव-भाव प्रकृति परिवेश आदि रस की सामग्री के रूप में मान्य हैं. इस रस-सामग्री को तीन श्रेणियों में रखा गया है -
(१) विभाव (२) अनुभाव (३) संचारी भाव .
इन्हीं तीनों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है. आचार्य भरतमुनि रस-निष्पत्ति के सम्बन्ध में एक सूत्र प्रस्तुत किया है -
'विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः .'
अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है.
विभाव (आलम्बन और उद्दीपन): भावों को उत्पन्न या जागृत करने वाले विशिष्ट बाह्य कारण ही विभाव कहलाते हैं. ये दो प्रकार के होते हैं -
(१) आलम्बन विभाव
(२) उद्दीपन विभाव .
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