भारतीय साहित्य में ललित निबंध की परंपरा को समृद्ध करने वाले कुछ ऐसे नाम हैं, जिनकी गहराई और दृष्टि आज भी पाठकों को मुग्ध करती है। इन्हीं में से एक हैं कुबेरनाथ राय। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र जैसे दिग्गजों के साथ ललित निबंध के शीर्ष पुरुषों में शुमार कुबेरनाथ राय का व्यक्तित्व और कृतित्व जितना सहज था, उनकी चिंतन यात्रा उतनी ही व्यापक और गहन।
"मेरे जीवन में कुछ भी ऐसा विशिष्ट नहीं..." - एक विनम्र शुरुआत
जब कुबेरनाथ राय से उनके जीवन के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब उनकी सादगी का प्रमाण था। उन्होंने कहा, "मेरे जीवन में कुछ भी ऐसा उग्र, उत्तेजक, रोमांटिक, अद्भुत या विशिष्ट नहीं जो कहने लायक हो।" पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के मतसाँ गाँव में 26 मार्च 1933 को जन्मे, एक साधारण किसान परिवार से आने वाले कुबेरनाथ राय ने अपने जीवन को एक शिक्षित और दायित्व-चेतनासम्पन्न युवक की सामान्य नियति बताया। उन्होंने पढ़ा, नौकरी की, घर का खर्चा चलाया और अगर कुछ अलग किया तो वे ललित निबंध थे। उनका मानना था कि उनके 'अन्तर्यामी पुरुष' ने उनसे लिखवाया, अन्यथा एक "भोजपुरी देहाती" से लिखना संभव नहीं था। यह कथन केवल उनकी विनम्रता नहीं, बल्कि उनके लेखन के पीछे की गहरी प्रेरणा और सहजता को भी दर्शाता है।
संघर्षों से तराशा गया एक चिंतनशील मन
कुबेरनाथ राय की प्रारंभिक शिक्षा उनके गाँव में हुई। मिडिल के लिए उन्हें कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। बनारस के क्विंस कॉलेज और काशी हिंदू विश्वविद्यालय से गणित, दर्शन और अंग्रेजी विषयों में स्नातक करने के बाद, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1958 में अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की। कलकत्ता में उनका प्रवास आर्थिक कठिनाइयों से भरा रहा, जहाँ उन्हें अपने खर्चों के लिए ट्यूशन पढ़ाना पड़ा। पीएच.डी. का विचार छोड़कर, 1959 में वे नलबारी कॉलेज, असम में अध्यापक बन गए, जहाँ उन्होंने लगभग तीन दशक तक सेवा दी। असम से उनका जुड़ाव इतना गहरा था कि वे उसे अपनी "सत्ता का अद्वैत" कहते थे। बाद में वे गाजीपुर लौट आए और स्वामी सहजानंद महाविद्यालय के प्राचार्य के रूप में सेवानिवृत्त हुए।
साहित्यिक संस्कारों की उर्वर भूमि
कुबेरनाथ राय के साहित्यिक संस्कारों की नींव उनके परिवार और परिवेश में पड़ी। उनका परिवार वैष्णव रामानुज संप्रदाय से जुड़ा था, और घर में प्रतिदिन धार्मिक ग्रंथों का पारायण होता था। उनके बाबा के भाई, पंडित बटुकदेव शर्मा, एक उच्च शिक्षित स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने 'कामधेनु', 'तरुणभारत' जैसे राष्ट्रवादी पत्र निकाले। इन पत्रों और घर में मौजूद 'आनंदमठ', 'देशेर कथा', 'भारत भारती' जैसी जब्तशुदा किताबों ने उनके 'भारत-बोध' और साहित्यिक चेतना को गहरा आकार दिया। तुलसीदास का 'रामचरित मानस' और लोक जीवन की कहानियाँ उनके मानस में रच-बस गई थीं, जिसकी झलक उनके लेखन में स्पष्ट दिखती है।
लेखन का उदय: जब धनुष-बाण हाथ में आया
कुबेरनाथ राय ने औपचारिक रूप से लेखन की शुरुआत 1962 में की। भारत के शिक्षामंत्री प्रो. हुमायूं कबीर के इतिहास लेखन संबंधी वक्तव्य से असहमत होकर, उन्होंने 'इतिहास और शुक-सारिका कथा' नामक एक तर्कपूर्ण निबंध 'सरस्वती' पत्रिका में भेजा। संपादक श्रीनारायण चतुर्वेदी ने इसे प्रकाशित किया और उन्हें लगातार लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। इस घटना को कुबेरनाथ राय ने अपने साहित्यिक दायित्व के प्रति सजग होने का क्षण बताया, "पं. श्री नारायण चतुर्वेदी ने मुझे घसीटकर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में धनुष-बाण पकड़ा दिया।"
उनका पहला ललित निबंध 'हेमंत की संध्या' 15 मार्च 1964 को 'धर्मयुग' में छपा, जो उनकी पहली कृति 'प्रिया नीलकंठी' का पहला निबंध भी है। 'संपाती के बेटे' जैसे निबंधों से उन्हें व्यापक प्रसिद्धि मिली, जहाँ उन्होंने ग्रामीण परिवेश के बहाने आधुनिक मनुष्य की स्थिति पर विचार किया।
चिंतन की पाँच दिशाएँ: भारतीयता की समग्र अभिव्यक्ति
अपने देहावसान (5 जून 1996) तक कुबेरनाथ राय ने लगभग सवा दो-ढाई सौ निबंध लिखे, जो उनके बीस से अधिक निबंध-संग्रहों में संकलित हैं, जिनमें 'कामधेनु', 'मराल', 'उत्तरकुरु', 'निषाद बाँसुरी', 'रामायण महातीर्थम्' आदि प्रमुख हैं। उनके निबंधों में शैली और शिल्प की विविधता मिलती है – रिपोर्ताज, संस्मरण, एकालाप, लघुकथा, संवाद, सब ललित निबंध के रूप में ढल गए हैं।
उन्होंने अपने लेखन की पाँच प्रमुख दिशाएँ बताईं:
- भारतीय साहित्य: रस और भूमा के समन्वय से श्रेष्ठ साहित्य का निर्माण।
- गंगातीरी लोक जीवन और आर्येतर भारत: भारत की नृजातीय संरचना का अन्वेषण, यह स्थापित करना कि भारत एक 'मुस्तर्का मिल्कियत' (साझा विरासत) है जहाँ कोई भी जाति विशुद्ध नहीं।
- रामकथा: राम को भारतीय राष्ट्रीय शील का प्रतीक और रामायण को 'जिजीविसा-करुणा-अभय' का महाकाव्य माना।
- गांधी दर्शन: सत्य और अहिंसा को भारतीय जीवन-दृष्टि का सार-तत्व माना।
- आधुनिक विश्व-चिंतन: भारतीय मानस को पश्चिमी चिंतन (समाजवाद, अस्तित्ववाद) से जोड़ना।
विरासत: परंपरा और आधुनिकता का संगम
कुबेरनाथ राय एक मूलसंश्लिष्ट लेखक थे, जिनकी चेतना ग्रामीण जीवन की आस्तिक भाव-भूमि और भारतीय आर्ष-चिंतन के गहन अनुशीलन से बनी थी। वे केवल वेद, उपनिषद् या शंकराचार्य की बात नहीं करते थे, बल्कि फागुन डोम, चंदर माझी जैसे लोक-जीवन के पात्रों का भी हवाला देते थे। उन्होंने भारतीयता को उसकी समग्रता में व्यक्त किया, जहाँ मूल्यबोध और नृजातीयता दोनों एक साथ समाहित थे।
रघुवीर सहाय ने उनके लेखन पर एक अत्यंत सटीक टिप्पणी की थी: "यदि संस्कार परम्परावादी हों तो क्या दृष्टि आधुनिक हो सकती है... इस प्रश्न का जितना साफ उत्तर कुबेरनाथ राय के निबन्ध पढ़कर मिलता है, उतना हिन्दी में लिखी गयी किसी कृति को पढ़कर नहीं मिलता। इन निबन्धों का पढ़ना एक नया अनुभव है।"
कुबेरनाथ राय का साहित्य आज भी हमें अपनी जड़ों से जुड़ने, भारतीयता के विभिन्न आयामों को समझने और आधुनिक विश्व-चिंतन के साथ उसका समन्वय स्थापित करने की प्रेरणा देता है। उनकी सादगी में छिपा यह गहन चिंतन ही उन्हें ललित निबंध परंपरा का एक अप्रतिम हस्ताक्षर बनाता है।