मुरली-बांसुरी , भावति-पसंद आती है, तऊ-फिर भी, जदपि-यद्यपि , नंदलालहिं- कृष्ण को , नचावति- नाचती है, पाई-पैर, ठाढ़ौ-खड़ा रखना, जनावति- दिखावा करना, आज्ञा- आदेश या श्रम, करवावति- करवाना, कटि- कमर, आधीन- मातहत या गुलाम , कनौड़े- उपकृत, नार- गर्दन, पौंढ़ि-लेटकर, सज्जा-शय्या या बिस्तर, कर- हाथ, पल्लव- आम के कोमल पत्ते, पलुटावति- पैर दबवाना, भृकटी- भौंह, कुटिल-टेढ़ी, नैन- आँख, नासा-पुट- नाक, कोप- क्रोध, छिन-क्षण ।
संदर्भ :
प्रस्तुत काव्यांस हमारी पाठ को पुस्तक अंतरा भाग- 1 के सूरदास नामक पाठ से लिया गया है। इसके रचइता भक्तिकाल के सगुण धारा के कृष्णभक्त कवि सूरदास हैं।
प्रसंग:
इन पंक्तियों में उन्होंने मुरली और गोपियों के बीच सपत्नी भाव का जिक्र किया है, जिसमें गोपियों के कृष्ण से प्रेम और कृष्ण के मुरली प्रेम का परिचय मिलता है।
व्याख्या :
इन पंक्तियों में गोपियों के कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम तथा कृष्ण के मुरली के प्रति लगाव का वर्णन है। कृष्ण के मुरली के प्रति लगाव के कारण गोपियां मुरली को अपनी सपत्नी या सौत के रूप में देखती और महसूस करती हैं।
पहली सखी दूसरी सखी से कह रही है कि हे सखी ! देखो यह मुरली कृष्ण को तब भी बहुत पसंद आती है, जबकि यह नंदलाल यानि कृष्ण को तरह-तरह से अपने इशारे पर नचाती हैं। यहां कृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा का जिक्र किया गया है। कृष्ण जिस समय बासुरी बजाते हैं तो उनका शरीर तीन इस्थानों से तिरड़ा होता है। उन तीनों इस्थानों का जिकर यहां पर किया गया है।
सबसे पहले गोपियां कह रही हैं कि ‘राखती एक पाय ठाडो कर’ अर्थात कृष्ण जब बासुरी बजाते हैं तो एक पैर पर खड़े रहते हैं। ऐसा महसूस होता है कि बासुरी उन्हें एक पैर पर खड़ा करके उन पर बहुत अधिक अधिकार दिखा रही है। उनके कोमल शरीर से आज्ञा देकर इतना अधिक श्रम करवाती है कि उनका कोमल शरीर कमर से टेढ़ा हो जाता है। त्रिभंगी मुद्रा का यह दूसरा स्थान है, जहां से कृष्ण का शरीर टेढ़ा होता है।
कृष्ण जब बांसुरी बजाते हैं तो उनकी कमर झुकी होती है। गोपियां कह रही हैं कि इस तीसरे स्थान से कृष्ण का झुकाना दरसल बांसुरी के श्रम कराने का परिणाम है। बांसुरी बहुत अधिक श्रम कराती है, जिससे कृष्ण की कमर झुक जाती है। जब वह बहुत अधिक बांसुरी के उपकार को महसूस कर रहे हैं, ऐसा बांसुरी को पता लगता है तो वह बहुत अधिक आधीन जानकर उन्हें अपना गुलाम जानकर कृष्ण से उनकी गर्दन भी झुकवा लेती है। गर्दन झुकवाना यानि अपने वश में कर लेना । कृष्ण के त्रिभंगी मुद्रा में या तीसरा स्थान है जहां से कृष्ण झुकते हैं । गोपियां कह रही हैं कि वह बहुत अधिक गुलामी का प्रतीक है । बांसुरी ने उन्हें गुलाम बना लिया है ।
फिर गोपियां कहती हैं कि कृष्ण के नरम होंठों पर वह इस तरह से लेट जाती है जैसे वह कृष्ण के होंठ न होकर बांसुरी के बिस्तर हों । बांसुरी की सैय्या हो । फिर कृष्ण के कोमल हाथों से वह निरंतर अपने पैर दबवाती है। कृष्ण के होठों पर रखी हुई बांसुरी और उस बांसुरी पर कृष्ण के हाथों का फिसलना इन दोनों स्थितियों का यहां बांसुरी के मानवीकरण के रूप में वर्णन किया गया है।
बांसुरी एक वाद्य न होकर वह एक स्त्री हो जो कृष्ण के अधरों पर लेटी हुई है और उनके नरम नरम हाथों से अपने पैरों को दबवा रही है ऐसा गोपियां कह रही है। बांसुरी बजाते हुए कृष्ण की भृकुटी यानि कृष्ण की भौंहे टेढ़ी हो जाती हैं। उनकी आखें तन जाती हैं और नथूने नासा पुट यानि नथूने फड़कने लगते हैं ऐसा देखकर गोपियां कहती हैं कि ऐसा महसूस होता है कि वह बांसुरी कृष्ण को इतना अधिक अपने बस में कर चुकी है कि वह भृकुटी टेढ़ी कराकर, आँखें फाड़कर और नथुने फड़कवाते हुए कृष्ण से हम पर कोप करवाती है।
सूरदास के अनुसार गोपियां यह भी कह रही हैं कि फिर भी किसी एक क्षण के लिए यदि हम पर प्रसन्न जान पड़ते हैं तो ऐसी स्थिति में हमारे पास आते ही बांसुरी कृष्ण से उनका सिर हिलवा देती है अर्थात हमें मना करा देती है।
काव्य-सौन्दर्य
- भाव सौन्दर्य : मुरली का मानवीकरण और गोपियों के स्त्री सुलभ सपत्नी भाव की सुंदर अभिव्यक्ति ।
- शील्प सौन्दर्य :
- रस : शृंगार
- छंद : पद
- अलंकार: मानवीकरण
- भाषा : ब्रजभाषा
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