व्यंजना का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है 'प्रकाशित करना'। व्यंजक शब्द के वाच्यार्थ या लक्ष्यार्थ से भिन्न तीसरे प्रकार का अर्थ प्रकाशित होने पर व्यंग्याचे माना जाता है। यह व्यंग्यार्थ व्यंजना शक्ति से ही प्रकाशित होता है । विद्यालय जाने वाले छात्र से यदि उसकी माता कहे,'नौ बज गए हैं' तो इसका अर्थ होगा : 'पाठशाला का समय हो गया है, तैयार हो जाओ।' यह अर्थ व्यंजना-शक्ति के उपयोग से ही सूचित होता है।
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व्यंजना के दो मुख्य भेद हैं: (१) शाब्दी व्यंजना (२) आर्थी व्यंजना । (क) अभिधामूला शाब्दी व्यंजना शाब्दी व्यंजना के पुनः दो रूप हो गए हैं' (ख) लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना ।
कई अर्थों में से जब किन्हीं कारणों अनेकार्थी शब्दों से व्यंजित होने वाले से एक विशिष्ट अर्थ ग्रहण कर लिया जाता है, तब दूसरे अर्थ का प्रकाशन अभिधामूला शाब्दी व्यंजना द्वारा ही होता है यथा
'चिरजीवो, जोरी जुरै क्यों न सनेह गंभीर । को धटि, ये वृषभानुजा , वे हलधर के बीर ॥
पर
इस प्रसंग में राधा के साथ उनकी सखियों का व्यंग्य-विनोद ज्ञापित है। 'वृक भान्जा' और 'हलघर के चीर' अनेकार्थी शब्द है। इनके निम्नांकित अर्थ
विचारणीय है:
१. वृषभानुजा
(क) वृषभानु की पुत्री अर्थात् राधा (ख) वृषभ-अनुजा अर्थात गाय ।
२. हलधर के बीर
(क) बलदाऊ के भाई अर्थात् कृष्ण
(ख) बेल के भाई अर्थात् बैल ।
दोनों अयों में (क) भाग का अर्थ हो स्वीकृत है किन्तु व्यंग्य-विनोद में (ख) भाग का अर्थ शाब्दी व्यंजना के कारण प्रकाशित होता है। यहाँ यह अर्थ भी अभिवेयार्य के रूप में प्राप्त है। इसीलिए 'गाय' और 'बैल' के रूप में प्राप्त अर्थ 'अभिधामूला शाब्दी व्यंजना' का प्रतिफल है।
भून्य जब लक्ष्यार्थ के माध्यम से व्यंग्वार्थ की सूचना मिलती है तब लक्षणामूला व्यंजना होती है। लक्षणामूला व्यंजना का परिचय निम्नांकित पवित से प्राप्त किया जा सकता है -
'काशी नगरी पवित्न गंगा पर बसी है।' इस संदर्भ में 'गंगा पर' बसने का अर्थ 'गंगा तट पर बसना' लक्षणां शक्ति के द्वारा सूचित ोता है। गंगा के साथ पवित्र का संयोग है। इस आधार पर व्यंजना निकलती है कि पवित्न गंगा के तट पर बसने के कारण काशी नगरी भी पवित्र है। अतः स्पष्ट है कि यहाँ लक्षणा के माध्यम से व्यंग्यार्थ की उपलब्धि हुई है। इसीलिए इस कथन में लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना मान्य है।
आर्थी व्यंजना में हम किसी अर्थ के माध्यम से व्यंग्यार्थ पर पहुँचते हैं। इस कार्य में कभी तो अभिधेयार्थ सीधे सहायक होता है और कभी अभिधेयार्थ से लक्ष्यार्थ को ग्रहण करते हुए व्यंग्यार्थ पर पहुँचने की प्रक्रिया पूर्ण होती है। आर्थी व्यजना के फलस्वरूप ही 'नो बज गए' का व्यंग्यार्थ 'पाठशाला जाने का समय हो गया' सूचित होता है।
लक्षणा और व्यंजना शक्ति के प्रयोग से ही कवि अपने काव्य में भावों को सफलतापूर्वक गुम्फित करता है और चमत्कार उत्पन्न करता है। काव्य में इन शक्तियों का जितना ही अधिक प्रयोग होता है उतना ही रस-तत्त्व पुष्ट होता है। इन्हीं शब्द-शक्तियों के कारण बदला गरजती' सुनाई पड़ने लगती है। व्यंग्यार्थ को पूरी तरह से समझने के तरह से समझने के लिए प्रलय, कथन-पद्धति आदि पर लगत बेड़ा आवश्यक होता है।
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