किसी वस्तु में निहित उपयोगिता और सौंदर्य को प्रकाशित करने का प्रयत्न ही 'कला' है। उपयोगिता और सौंदर्य के आधार पर कला के दो भेद किए गए हैं:
(1) उपयोगी कला
(2) ललित कला।
उपयोगिता तथा सौंदर्य की उपयोगिता का एक प्रकार होता है। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में उपयोगी कला सहायक होती है, जैसे कपड़े, बर्तन आदि। इसके विपरीत ललित कला में सौंदर्य तत्त्व की प्रधानता रहती है। नाना प्रकार के अलंकरणों द्वारा यह मनुष्य को मानसिक आनंद प्रदान करती है। नृत्य, संगीत, चित्र आदि ललित कलाओं की परिभाषा इस प्रकार दी जाती है—
ललित कला वह वस्तु या चरित्रार्थ है जिसका अनुभव इंद्रियों के माध्यम द्वारा प्राप्त होता है और जिससे मन को संतोष या तृप्ति मिले।
इसका उद्देश्य केवल तृप्ति प्राप्त करना है, इसलिए ललित कला का कार्य मानसिक दृष्टि से सौंदर्य का प्रस्फुटनकरण है।
मनुष्य की भावनाओं को समझने, उद्दीप्त और परिष्कृत करने में साहित्य तथाकथित समस्त कलाओं का अङ्गीभूत होता है। ललित कलाएँ पाँच प्रकार की मानी गई हैं:
(1) काव्य
(2) संगीत
(3) चित्र
(4) मूर्ति
(5) वास्तु
इनमें साहित्य को सर्वोत्तम माना गया है। मानव के प्रबुद्ध मन की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति शब्द-कला में ही है।
कला की दृष्टि से कलाकार की नैसर्गिक प्रतिभा का परिणाम है। प्रतिभा का कोई कलाकार बनाया नहीं जाता है, वह पैदा होता है। कला-प्रयत्न का मूल आधार होता है – चिंतन। चित्र, नृत्य, नाट्य आदि सब संगीत से जुड़े होते हैं। चित्रकला, संगीत का आधार 'नाद' है, जो कानों से ग्रहण किया जाता है। ‘नाद’ शब्द, संगीत का पदार्थ है, ईंट-बालू की अपेक्षा कहीं अधिक भौतिक रूप में शक्तिशाली तत्त्व है। स्थापत्य कला और वास्तुकला की उत्कृष्टता को भी सौंदर्य के रूप में स्वीकार किया गया है।
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