शनिवार, 28 जून 2025

साहित्य का स्वरूप

मानव में सौंदर्य-भावना या विकास करने और उसे कल्याण की ओर अग्रसर करने वाली कला को साहित्य कहते हैं। ‘साहित्य’ शब्द 'सहित' में प्रयुक्त ‘सहित’ का अर्थ है – 'हित के साथ'।

साहित्य के तीन भेद विद्वानों ने किए हैं –

(1) श्रव्य साहित्य

(2) दृश्य साहित्य

(3) चित्र साहित्य

इन इन्द्रियों और भाषिक रूपों के तीनों रूपों को विवेचन करने के समाधान हेतु स्वीकार किया गया है।

साहित्य में शब्द और अर्थ, भाव और शैली भाव-साधन रहते हैं। उन सबमें हित-अर्थ अथवा कल्याण का भाव निहित रहता है।

साहित्य समाज का प्रतिबिंब




धर्म और समाज की दृष्टि से साहित्य का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है।
एक ओर साहित्य समाज का अभिरुचि-विकास करता है और दूसरी ओर सामाजिक नैतिक मूल्यों की रक्षा करता है।
किसी भी देश की सभ्यता, संस्कृति का मूल्यांकन वहाँ के साहित्य से किया जाता है। जिस देश का साहित्य समृद्ध नहीं होता, वह देश अशक्त रहता है।

हर युग में साहित्य ने उस युग की प्रवृत्तियों को प्रकट किया है। साहित्यकार अपने युग का प्रवक्ता होता है।
उसका चिंतन एवं संवेदना समाज की परिस्थितियों पर आधारित होती है।
प्रसाद, दिनकर, बच्चन आदि की रचनाओं में विचार, भाव और शिल्प का परिमार्जन उनके युग की चेतना के अनुसार हुआ।

भारतीय कला में मानव-जीवन के भौतिक पक्ष में भी अध्यात्म अंतर्निहित है।
आज का वैज्ञानिक युग मानव को तकनीक से जोड़ तो रहा है, पर मानवता से दूर भी कर रहा है।
ईर्ष्या-द्वेष, स्वार्थ, हिंसा और वैमनस्य का वातावरण फैल रहा है।
ऐसे में साहित्य ही है जो मनुष्य को फिर से मानवीय संवेदनाओं से जोड़ता है।

रामराज्य की अवधारणा, संवेदना-प्रधान आदर्शों की पुनः स्थापना साहित्य कर सकता है।
आज साहित्य को उत्तरदायित्वपूर्ण भूमिका दी गई है— मानवीय मूल्यों की पुनः स्थापना करना।


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साहित्य

  काव्य या साहित्य का माध्यम शब्द है। शब्द में अर्थ छिपा रहता है, इसी से भावनाओं का संचार होता है।

साहित्य मनुष्य के अनुभूत सत्य को सहृदय तक पहुँचाता है।


भारत तथा मानव समाज की सभ्यता या संस्कृति, मानवीय भावनाओं को परिष्कृत करने तथा उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम वेद, संहिता, काव्य, नाटक आदि के विकास में रही है।


संस्कृत साहित्य ने मानव-जीवन को महत्व दिया, जातीयता से दिव्यता तक ले गया।


गीतों की मर्मस्पर्श प्रस्तुति ने जन-जन की संवेदना को उद्वेलित किया।


यह स्पष्ट है कि बहुत कुछ साहित्य के द्वारा ही हुआ है।

कला और साहित्य

 


किसी वस्तु में निहित उपयोगिता और सौंदर्य को प्रकाशित करने का प्रयत्न ही 'कला' है। उपयोगिता और सौंदर्य के आधार पर कला के दो भेद किए गए हैं:

(1) उपयोगी कला

(2) ललित कला।


उपयोगिता तथा सौंदर्य की उपयोगिता का एक प्रकार होता है। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में उपयोगी कला सहायक होती है, जैसे कपड़े, बर्तन आदि। इसके विपरीत ललित कला में सौंदर्य तत्त्व की प्रधानता रहती है। नाना प्रकार के अलंकरणों द्वारा यह मनुष्य को मानसिक आनंद प्रदान करती है। नृत्य, संगीत, चित्र आदि ललित कलाओं की परिभाषा इस प्रकार दी जाती है—


ललित कला वह वस्तु या चरित्रार्थ है जिसका अनुभव इंद्रियों के माध्यम द्वारा प्राप्त होता है और जिससे मन को संतोष या तृप्ति मिले।


इसका उद्देश्य केवल तृप्ति प्राप्त करना है, इसलिए ललित कला का कार्य मानसिक दृष्टि से सौंदर्य का प्रस्फुटनकरण है।


मनुष्य की भावनाओं को समझने, उद्दीप्त और परिष्कृत करने में साहित्य तथाकथित समस्त कलाओं का अङ्गीभूत होता है। ललित कलाएँ पाँच प्रकार की मानी गई हैं:

(1) काव्य

(2) संगीत

(3) चित्र

(4) मूर्ति

(5) वास्तु


इनमें साहित्य को सर्वोत्तम माना गया है। मानव के प्रबुद्ध मन की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति शब्द-कला में ही है।


कला की दृष्टि से कलाकार की नैसर्गिक प्रतिभा का परिणाम है। प्रतिभा का कोई कलाकार बनाया नहीं जाता है, वह पैदा होता है। कला-प्रयत्न का मूल आधार होता है – चिंतन। चित्र, नृत्य, नाट्य आदि सब संगीत से जुड़े होते हैं। चित्रकला, संगीत का आधार 'नाद' है, जो कानों से ग्रहण किया जाता है। ‘नाद’ शब्द, संगीत का पदार्थ है, ईंट-बालू की अपेक्षा कहीं अधिक भौतिक रूप में शक्तिशाली तत्त्व है। स्थापत्य कला और वास्तुकला की उत्कृष्टता को भी सौंदर्य के रूप में स्वीकार किया गया है।



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