भरतमुनि ने रस-निष्पत्ति का सूत्र दिया है –
"विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः।"
अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है।
काव्य को पढ़ने-सुनने या नाटक को देखने से जो विशेष प्रकार का आनन्द प्राप्त होता है, वही रस कहलाता है।
यह रस केवल वही अनुभव कर सकता है जिसे सहृदय (संवेदनशील, भावुक और सामाजिक दृष्टि वाला) कहा जाता है।
यानी, रस का अनुभव पाठक, श्रोता और दर्शक सभी कर सकते हैं।
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२. भाव और उसके प्रकार
रस की प्राप्ति में मन की प्रवृत्तियाँ सहायक होती हैं।
मन में जो विविध वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें भाव कहते हैं।
आचार्यों ने भावों को दो वर्गों में बाँटा है –
1. स्थायी भाव
2. संचारी (व्यभिचारी) भाव
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(क) स्थायी भाव
ये मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ हैं।
ये प्रत्येक मनुष्य के भीतर सोए रहते हैं और अनुकूल परिस्थिति में जाग्रत हो जाते हैं।
इनकी संख्या मूलतः ९ मानी गई है, लेकिन वत्सल्य (ममता) को जोड़कर १० कर दिया गया है।
इन्हीं से १० रसों की उत्पत्ति होती है।
स्थायी भाव रस
रति (प्रेम) शृंगार रस
हास हास्य रस
शोक करुण रस
क्रोध रौद्र रस
उत्साह वीर रस
भय भयानक रस
जुगुप्सा (घृणा) बीभत्स रस
विस्मय अद्भुत रस
शम/निर्वेद शान्त रस
वत्सल्य (ममता) वात्सल्य रस
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(ख) संचारी भाव (व्यभिचारी भाव)
स्थायी भावों के अतिरिक्त वे भाव जो समय-समय पर उत्पन्न और शांत होते रहते हैं, संचारी भाव कहलाते हैं।
ये स्थायी भावों का पोषण और पुष्टिकरण करते हैं।
इनकी संख्या ३३ मानी गई है, जैसे – निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, हर्ष, आवेग, विषाद, निद्रा, उन्माद, त्रास, मरण आदि।
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३. रस की सामग्री (रसोत्पादक साधन)
रस की अनुभूति तभी संभव है जब कुछ विशेष सामग्री पाठक या दर्शक के सामने आए। इसे रस की सामग्री कहते हैं। इसके तीन मुख्य घटक हैं –
1. विभाव – भावों को उत्पन्न करने वाले कारण।
आलम्बन विभाव: जिन पर भाव केंद्रित हो (जैसे नायक-नायिका)।
उद्दीपन विभाव: जो भावों को जाग्रत करें (जैसे ऋतु, वन, पुष्प, चन्द्रमा)।
2. अनुभाव – वे बाह्य क्रियाएँ जिनसे आन्तरिक भाव प्रकट होते हैं (जैसे अंग-संचालन, हाव-भाव, वाणी, मुखमुद्रा)।
3. संचारी भाव – वे अस्थायी भाव जो स्थायी भावों को पोषण देते हैं।
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