उल्टा पिरामिड शैली समाचार लेखन की एक विधि है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण जानकारी पहले दी जाती है, उसके बाद महत्व के घटते क्रम में कम महत्वपूर्ण जानकारी आती है. इस शैली को "न्यूज-गेदरिंग" या "लीड" भी कहते हैं, क्योंकि इसमें कौन, क्या, कब, कहाँ, क्यों और कैसे (5W और H) जैसे सवालों के जवाब तुरंत मिल जाते हैं. इस शैली का उपयोग सुनिश्चित करता है कि पाठक कम समय में भी मुख्य बिंदु जान जाए, भले ही वह पूरा लेख न पढ़े.
गुरुवार, 4 सितंबर 2025
उल्टा पिरामिड
उल्टा पिरामिड शैली समाचार लेखन की एक विधि है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण जानकारी पहले दी जाती है, उसके बाद महत्व के घटते क्रम में कम महत्वपूर्ण जानकारी आती है. इस शैली को "न्यूज-गेदरिंग" या "लीड" भी कहते हैं, क्योंकि इसमें कौन, क्या, कब, कहाँ, क्यों और कैसे (5W और H) जैसे सवालों के जवाब तुरंत मिल जाते हैं. इस शैली का उपयोग सुनिश्चित करता है कि पाठक कम समय में भी मुख्य बिंदु जान जाए, भले ही वह पूरा लेख न पढ़े.
छह ककार
किसी समाचार को लिखते हुए मुख्यतः छह सवालों का जवाब देने की कोशिश की जाती है क्या हुआ, किसके साथ हुआ, कहाँ हुआ, कब हुआ, कैसे और क्यों हुआ? इस-क्या, किसके (या कौन), कहाँ, कब, क्यों और कैसे को छह ककारों के रूप में भी जाना जाता है। किसी घटना, समस्या या विचार से संबंधित खबर लिखते हुए इन छह ककारों को ही ध्यान में रखा जाता है।
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ककार |
समाचार के मुखड़े (इंट्रो) यानी पहले पैराग्राफ़ या शुरुआती दो-तीन पंक्तियों में आमतौर पर तीन या चार ककारों को आधार बनाकर खबर लिखी जाती है। ये चार ककार हैं-क्या, कौन, कब और कहाँ? इसके बाद समाचार की बॉडी में और समापन के पहले बाकी दो ककारों-कैसे और क्यों का जवाब दिया जाता है। इस तरह छह ककारों के आधार पर समाचार तैयार होता है। इनमें से पहले चार ककार-क्या, कौन, कब और कहाँ सूचनात्मक और तथ्यों पर आधारित होते हैं जबकि बाकी दो ककारों-कैसे और क्यों में विवरणात्मक, व्याख्यात्मक और विश्लेषणात्मक पहलू पर जोर दिया जाता है।
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मात्रिक छंद
चोपाई : यह एक सम मात्रिक छन्द है। इसमें बार चरण होते हैं। प्रायेक चरण में १६ मात्राएँ होती है तथा अन्त में जगण (151) या सगणः (551) न रखने का विधान है। चौपाई के चरणान्त में (51) गुरु लघु नहीं होना चाहिए। इस छंद के दो चरणों को मिलाकर एक अर्धाली बनती है ।
उदाहरण
SIISII SI।।।।।१६।।। 11=१६ कंकन-किकिनि नूपुर घुनि सुनि। कहुत लबन सन राम हृदय गुनि ।। SIIIII SI555 = १६। 15511111155-१६ मानह मदन बुंदुभी दीन्ही । मनसा विस्व-विजय कहें कीन्ही ।।
दोहा : यह एक अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसके सम चरणों (दूसरे व बौथे चरणों) में ११-११ मात्राएँ और विषम चरणों (प्रथम व तृतीय चरणों) में १३-१३ मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार १३+११, १३+११ मात्राओं के क्रम से इसके चार चरणों का संयोजन होता है। दोहा के विषम चरणों के प्रारंभ में जगण (1S1) नहीं होना चाहिए और अन्त में (SI) गुरु लघु मात्रा के साथ सम चरणों को समाप्त होना चाहिए। अन्त में (SI) गुरु लघु का क्रम आवश्यक होता है।
उदाहरण-
11111151।।।।१३।11111151=११
रहिमन अंसुवा नयन करि, जिय दुख प्रगट करेइ ।
SIISS S। 5-१३।।।5।।।51 ११
जाहि निकारो गेह ते कस न भेद कहि देइ ।।
सोरठा : सोरठा को दोहा का उल्टा माना जाता है। दोहा के विषम बरणों (प्रथम व तृतीय) में ११-११ मात्राएँ तथा सम चरणों (द्वितीय और चतुर्थ) में १३-१३ मात्राएँ होती हैं। इस छंद में विषम चरणों के अन्त में तुक मिलता है।
उदाहरण-
111151151 = ११ ||5|| । ।। ऽ १३
लिखकर लोहित लेख, हब गया दिनमणि अहा ।
SISITISI-११ 51111।ऽऽ १३
ब्योम-सिन्धु सखि देख, तारक बुद बुद दे रहा ।।
बुधवार, 3 सितंबर 2025
व्यंजना
व्यंजना का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है 'प्रकाशित करना'।
व्यंजक शब्द के वाच्यार्थ या लक्ष्यार्थ से भिन्न तीसरे प्रकार का अर्थ प्रकाशित होने पर व्यंग्य माना जाता है। यह व्यंग्यार्थ व्यंजना शक्ति से ही प्रकाशित होता है । विद्यालय जाने वाले छात्र से यदि उसकी माता कहे,'नौ बज गए हैं' तो इसका अर्थ होगा : 'पाठशाला का समय हो गया है, तैयार हो जाओ।' यह अर्थ व्यंजना-शक्ति के उपयोग से ही सूचित होता है।
व्यंजना के दो मुख्य भेद हैं:
(१) शाब्दी व्यंजना (२) आर्थी व्यंजना ।
शाब्दी व्यंजना के पुनः दो रूप हो गए हैं:
(क) अभिधामूला शाब्दी व्यंजना ' (ख) लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना ।
कई अर्थों में से जब किन्हीं कारणों अनेकार्थी शब्दों से व्यंजित होने वाले से एक विशिष्ट अर्थ ग्रहण कर लिया जाता है, तब दूसरे अर्थ का प्रकाशन अभिधामूला शाब्दी व्यंजना द्वारा ही होता है यथा
'चिरजीवो, जोरी जुरै क्यों न सनेह गंभीर ।
को धटि, ये वृषभानुजा , वे हलधर के बीर ॥
इस प्रसंग में राधा के साथ उनकी सखियों का व्यंग्य-विनोद ज्ञापित है। 'वृक भान्जा' और 'हलघर के चीर' अनेकार्थी शब्द है। इनके निम्नांकित अर्थ
विचारणीय है:
१. वृषभानुजा
(क) वृषभानु की पुत्री अर्थात् राधा (ख) वृषभ-अनुजा अर्थात गाय ।
२. हलधर के बीर
(क) बलदाऊ के भाई अर्थात् कृष्ण
(ख) बेल के भाई अर्थात् बैल ।
दोनों अयों में (क) भाग का अर्थ हो स्वीकृत है किन्तु व्यंग्य-विनोद में (ख) भाग का अर्थ शाब्दी व्यंजना के कारण प्रकाशित होता है। यहाँ यह अर्थ भी अभिवेयार्य के रूप में प्राप्त है। इसीलिए 'गाय' और 'बैल' के रूप में प्राप्त अर्थ 'अभिधामूला शाब्दी व्यंजना' का प्रतिफल है।
जब लक्ष्यार्थ के माध्यम से व्यंग्वार्थ की सूचना मिलती है तब लक्षणामूला व्यंजना होती है। लक्षणामूला व्यंजना का परिचय निम्नांकित पवित से प्राप्त किया जा सकता है -
'काशी नगरी पवित्न गंगा पर बसी है।'
इस संदर्भ में 'गंगा पर' बसने का अर्थ 'गंगा तट पर बसना' लक्षणा शक्ति के द्वारा सूचित ोता है। गंगा के साथ पवित्र का संयोग है। इस आधार पर व्यंजना निकलती है कि पवित्न गंगा के तट पर बसने के कारण काशी नगरी भी पवित्र है। अतः स्पष्ट है कि यहाँ लक्षणा के माध्यम से व्यंग्यार्थ की उपलब्धि हुई है। इसीलिए इस कथन में लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना मान्य है।
आर्थी व्यंजना में हम किसी अर्थ के माध्यम से व्यंग्यार्थ पर पहुँचते हैं। इस कार्य में कभी तो अभिधेयार्थ सीधे सहायक होता है और कभी अभिधेयार्थ से लक्ष्यार्थ को ग्रहण करते हुए व्यंग्यार्थ पर पहुँचने की प्रक्रिया पूर्ण होती है। आर्थी व्यजना के फलस्वरूप ही 'नो बज गए' का व्यंग्यार्थ 'पाठशाला जाने का समय हो गया' सूचित होता है।
लक्षणा और व्यंजना शक्ति के प्रयोग से ही कवि अपने काव्य में भावों को सफलतापूर्वक गुम्फित करता है और चमत्कार उत्पन्न करता है। काव्य में इन शक्तियों का जितना ही अधिक प्रयोग होता है उतना ही रस-तत्त्व पुष्ट होता है।
लक्षणा
मुख्यार्थ को छोड़ कर उससे संबंधित और संगत अर्थ को संकेतित करने वाली शब्द शक्ति लक्षणा है। पूर्वोक्त अभिमान में बना' वाक्य में 'डबना शब्द का अर्थ 'भरा होना लक्षणा शक्ति का ही परिणाम है। 'डबना का मुख्य अर्थ जब बाधित हो गया तब लक्षणा ने अपना कार्य किया और उसने लक्ष्यार्थ को सूचित किया।
जब वक्ता मुख्यार्थ या वाच्यार्थ से अपने भाव को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाता, तब वह लक्षणा शक्ति का उपयोग करता है। इस प्रकार 'लक्षणा' के लिए तीन शर्ते मान्य है ।
१. मुख्यार्थ बाध,
२. मुख्यार्थ सम्बन्ध,
३. प्रयोजन रूढ़ि
लक्षणा के भेद : मुख्यार्थ बाघ होने पर उससे संबद्ध दूसरा संगत अर्थ जव
किसी धर्म या गुण के आधार पर व्यक्त होता है, तब गौणी लक्षणा होती है। 'चौकन्ना होना' में 'चौकन्ना' शब्द का मुख्यार्थ है- 'चार कानों वाला' । इसका लक्ष्यार्थ 'सावधान' है। इन दोनों अर्थों पर ध्यान देने पर स्पष्ट होता है कि मुख्यार्थ के बाधित होने पर भी उसका लक्ष्यार्थ से सादृश्य संबंध है। इसीलिए यहाँ गोणी लक्षणा है।
हम पुलिस को देखकर कहते हैं कि 'लाल पगड़ी' जा रही है। यहाँ 'लाल पगड़ी' शब्द का मुख्यार्थ बाधित हो गया है। उसका पुलिस अर्थ हमे लक्षणा शक्ति से ज्ञात हुआ है। 'लाल पगड़ी' और 'पुलिस' में किसी धर्म या गुण की समानता नहीं है। 'लाल पगड़ी' तो धारण की जाने वाली एक बस्तु है। पुलिस उसे धारण करने वाला व्यक्ति है। इस प्रकार यहाँ गुण-सादृश्य सम्बन्ध न होकर दूसरे प्रकार का सम्बन्ध उपस्थित है। ऐसी स्थिति में 'लाल पगड़ी' का लक्ष्यार्थ 'पुलिस' सूचित करने वाली शक्ति को शुद्ध लक्षणा वहते हैं।
लक्षणा को प्रयोजन और उसकी रूढ़ स्थिति के आधार पर दो श्रेणियों में बाँटा गया है- (१) रूढ़ि लक्षणा (२) प्रयोजनवती लक्षणा । रूढ़ि लक्षणा में रूढ़ि के अनुसार लक्षणा होती है। रूढ़ि का अर्थ प्राचीन प्रयोग समझना चाहिए । एक उदाहरण लीजिए -
'तैमूर के आक्रमण का समाचार सुनकर सारा देश भयभीत हो उठा' । यहाँ 'सारा देश' का अर्थ 'सम्पूर्ण देशवासी' है। प्राचीन प्रयोग में ही 'देश' का 'देशवासी' अर्थ रूढ़ हो उठा है। यह अर्थ लक्ष्यार्थ होते हुए भी रूढ़ है। इस-लिए यहाँ 'रूढ़ि लक्षणा' है ।
जब लक्षणा शक्ति का उपयोग प्रयोजन के अनुसार किया जाता है, तब 'प्रयोजनवती लक्षणा' सिद्ध होती है। काशी नगरी गंगों पर दसी हैं' में 'गंगा पर' का सामान्य अर्थ 'गंगा की धारा पर' होता है, किन्तु कोई नगरी नदी की धारा पर नहीं बस सकती । यहाँ 'गंगा पर' से प्रयोजन है 'गंगा तट पर', इसलिए प्रयोजनवती लक्षणा के कारण इसका अर्थ हुआ 'काशी नगरी गंगा के तट पर बसी है' ।
काव्य में दो वस्तुओं के बीच जब उपमा दी जाती है तब जिसकी उपमा दी जाती है उसे उपमेय और जिससे उपमा की जाती हैं उसे उपमान कहते हैं। उपमेय और उपमान दोनों का एक साथ कथन करने की क्रिया 'आरोप' कह-लाती है। ऐसी स्थिति में सारोपा लक्षणा मान्य होती है।
जब केवल उपमान का कथन होता है और इस रूप में उपमान उपमेया पर छा जाता है तब साध्यवसाना लक्षणा मानी जाती है। अध्यवसान का अर्थ है 'छ। जाना' । 'खेलते दो खंजन सुकुमार' में दो खंजन आँखों के उपमान हैं। इस कथन में उपमान तो कथित हुआ है पर उण्पेय का कथन नहीं है। इस लिए यहाँ 'साध्यवसाना लक्षणा' है ।
लक्षणा के विविध रूपों का अध्ययन करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि लक्षणा के निम्नांकित भेद हैं-
1. गोणी लक्षणा और शुद्ध लक्षणा ।
२. रूढ़ि लक्षणा और प्रयोजनवती लक्षणा ।
३. सारोरा लक्षणा और साध्यवसाना लक्षणा ।
अभिधा शब्द शक्ति (Denotation):
यह शब्द की वह शक्ति है जो उसके पूर्व निर्धारित या मुख्य अर्थ का बोध कराती है, जिसे अभिधेयार्थ या मुख्यार्थ कहते हैं.
- शब्द के अर्थ का निर्धारण व्यवहार, आप्त वाक्य, कोश और व्याकरण द्वारा होता है.
- मुख्यार्थ को व्यक्त करने वाले शब्द 'वाचक शब्द' कहलाते हैं, जो तीन प्रकार के होते हैं:
- रूढ़ शब्द: वे शब्द जिनके खंड करने पर कोई अर्थ नहीं निकलता और जिनका अर्थ पूर्व निर्धारित होता है (जैसे: जल, कमल).
- यौगिक शब्द: वे शब्द जिनका खंड किया जा सकता है और जिनमें उपसर्ग या प्रत्यय का योग होता है (जैसे: दासता, अनुचित).
- योगरूढ़ शब्द: वे शब्द जो यौगिक होते हुए भी रूढ़ अर्थ प्रकट करते हैं, यानी उनके खंड किए जा सकते हैं लेकिन वे किसी विशेष अर्थ के लिए रूढ़ हो जाते हैं (जैसे: पंकज - 'पंक' और 'ज' का योग, जिसका शाब्दिक अर्थ 'कीचड़ में उत्पन्न होने वाला' है, लेकिन यह केवल कमल के लिए रूढ़ हो गया है).
- कुछ वाचक शब्द एकार्थक होते हैं (जैसे: पुस्तक) और कुछ अनेकार्थक (जैसे: गोली, टीका, कर), जिनका अर्थ संदर्भ के अनुसार बदलता है.
रस क्या है?
भरतमुनि ने रस-निष्पत्ति का सूत्र दिया है –
"विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः।"
अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है।
काव्य को पढ़ने-सुनने या नाटक को देखने से जो विशेष प्रकार का आनन्द प्राप्त होता है, वही रस कहलाता है।
यह रस केवल वही अनुभव कर सकता है जिसे सहृदय (संवेदनशील, भावुक और सामाजिक दृष्टि वाला) कहा जाता है।
यानी, रस का अनुभव पाठक, श्रोता और दर्शक सभी कर सकते हैं।
२. भाव और उसके प्रकार
रस की प्राप्ति में मन की प्रवृत्तियाँ सहायक होती हैं।
मन में जो विविध वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें भाव कहते हैं।
आचार्यों ने भावों को दो वर्गों में बाँटा है –
1. स्थायी भाव
2. संचारी (व्यभिचारी) भाव
(क) स्थायी भाव
ये मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ हैं।
ये प्रत्येक मनुष्य के भीतर सोए रहते हैं और अनुकूल परिस्थिति में जाग्रत हो जाते हैं।
इनकी संख्या मूलतः ९ मानी गई है, लेकिन वत्सल्य (ममता) को जोड़कर १० कर दिया गया है।
इन्हीं से १० रसों की उत्पत्ति होती है।
स्थायी भाव रस
रति (प्रेम) शृंगार रस
हास हास्य रस
शोक करुण रस
क्रोध रौद्र रस
उत्साह वीर रस
भय भयानक रस
जुगुप्सा (घृणा) बीभत्स रस
विस्मय अद्भुत रस
शम/निर्वेद शान्त रस
वत्सल्य (ममता) वात्सल्य रस
(ख) संचारी भाव (व्यभिचारी भाव)
स्थायी भावों के अतिरिक्त वे भाव जो समय-समय पर उत्पन्न और शांत होते रहते हैं, संचारी भाव कहलाते हैं।
ये स्थायी भावों का पोषण और पुष्टिकरण करते हैं।
इनकी संख्या ३३ मानी गई है, जैसे – निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, हर्ष, आवेग, विषाद, निद्रा, उन्माद, त्रास, मरण आदि।
३. रस की सामग्री (रसोत्पादक साधन)
रस की अनुभूति तभी संभव है जब कुछ विशेष सामग्री पाठक या दर्शक के सामने आए। इसे रस की सामग्री कहते हैं। इसके तीन मुख्य घटक हैं –
1. विभाव – भावों को उत्पन्न करने वाले कारण।
आलम्बन विभाव: जिन पर भाव केंद्रित हो (जैसे नायक-नायिका)।
उद्दीपन विभाव: जो भावों को जाग्रत करें (जैसे ऋतु, वन, पुष्प, चन्द्रमा)।
2. अनुभाव – वे बाह्य क्रियाएँ जिनसे आन्तरिक भाव प्रकट होते हैं (जैसे अंग-संचालन, हाव-भाव, वाणी, मुखमुद्रा)।
3. संचारी भाव – वे अस्थायी भाव जो स्थायी भावों को पोषण देते हैं।
रस
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रस |
काव्य को पढ़ने-सुनने या नाटक को देखने से हमें विशेष प्रकार के आनन्द की प्राप्ति होती है. इसी आनन्द को रस कहते हैं. जो लोग रस प्राप्त करते हैं, उन्हें सहृदय या सामाजिक कहा जाता है. इस प्रकार पाठक, श्रोता और दर्शक सामाजिक या सहृदय कहलाते हैं.
रस या आनन्द की अनुभूति में हमारी प्रवृत्तियां सहायक होती हैं. विभिन्न स्थितियों में हमारे मन की अनेक वृत्तियां बनती रहती हैं. चित्त की इन्हीं वृत्तियों को भाव कहते हैं. आचार्यों ने भावों को दो वर्गों में बांटा है-
(१) स्थायी भाव और (२) संचारी भाव .
स्थायी भाव
मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां स्थायी भाव के रूप में जानी गई हैं. इनकी संख्या नौ हैं. ये स्थायी भाव प्रत्येक मनुष्य के मन में सोए रहते हैं और अनुकूल परिस्थिति में जागृत होते हैं. नौ स्थायी भावों रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय, शम अर्थात् निर्वेद के साथ शिशु के प्रति वत्सल (ममता) को संयुक्त कर लेने पर इनकी संख्या १० हो गई हैं. इन्हीं १० स्थायी भावों से १० प्रकार के आनन्द प्राप्त होते हैं. इसीलिए १० स्थायी भावों से १० रसों की उत्पत्ति स्वीकार की गई है. इनका उल्लेख इस प्रकार है-
स्थायी भाव
रस
१. रति: शृंगार
२. हास: हास्य
३. शोक : करुण
४. क्रोध: रौद्र
उत्साह : वीर
जुगुप्सा (घृणा) : विभत्स
६. शम या निर्वेद : शान्त
६. भय : भयानक
८. विस्मय : अद्भुत
१०. वत्सल: वात्सल्य
संचारी भाव
दस स्थायी भावों के अतिरिक्त बहुत से अन्य ऐसे भाव भी हैं जो यथा अवसर उत्पन्न और शमित होते रहते हैं. इनका यथासमय स्थायी भावों के साथ संचरण होता है. इसीलिए इन्हें संचारी भाव कहते हैं. इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है. संचारी या व्यभिचारी भावों की संख्या ३३ मानी गई है. ये हैं-
(१) निर्वेद (२) ग्लानि (३) शंका (४) असूया (५) मद (६) श्रम (७) आलस्य (८) दैन्य (६) चिन्ता (१०) मोह (११) स्मृति (१२) धृति (१३) क्रीड़ा (१४) चपलता (१५) हर्ष (१६) आवेग (१७) जड़ता (१८) गर्व (१६) विषाद (२०) औत्सुक्य (२१) निद्रा (२२) अपस्मार (मिरगी) (२३) स्वप्न (२४) विबोध (जागना) (२५) अमर्ष (२६) अवहित्थ (गोपन) (२७) उग्रता (२८) मति (२६) व्याधि (३०) उन्माद (३१) त्रास (३२) वितर्क (३३) मरण .
इन संचारी भावों से स्थायी भाव पुष्ट होते हैं.
सहृदय के स्थायी भाव को उद्बुद्ध कर उसे रस की स्थिति में लाने वाली सामग्री को रस की सामग्री कहते हैं. नायक-नायिका, उनके हाव-भाव प्रकृति परिवेश आदि रस की सामग्री के रूप में मान्य हैं. इस रस-सामग्री को तीन श्रेणियों में रखा गया है -
(१) विभाव (२) अनुभाव (३) संचारी भाव .
इन्हीं तीनों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है. आचार्य भरतमुनि रस-निष्पत्ति के सम्बन्ध में एक सूत्र प्रस्तुत किया है -
'विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः .'
अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है.
विभाव (आलम्बन और उद्दीपन): भावों को उत्पन्न या जागृत करने वाले विशिष्ट बाह्य कारण ही विभाव कहलाते हैं. ये दो प्रकार के होते हैं -
(१) आलम्बन विभाव
(२) उद्दीपन विभाव .
सोमवार, 1 सितंबर 2025
कार्नेलिया का गीत : व्याख्या
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करनेलिया |
कार्नेलिया अपने गीत में अरुण यानी सुबह के सूर्य को संबोधित करते हुए भारत के प्राकृतिक और सांस्कृतिक सौंदर्य का वर्णन कर रही है। अरुणिमा नएपन का भी प्रतीक है। भारत के संस्कृति के दीप्त या प्रकाशित अर्थात उन तत्वों का प्रतीक है, जो भारतीय संस्कृति को विशिष्ट और महान बनाते हैं । कार्नेलिया भारत को संबोधित करते हुए ही भारत और भारत के सांस्कृतिक गौरव को भी संबोधित कर रही है। वह कह रही है कि यह देश, यह हमारा देश, यानी यह भारत देश मधुमेह है, सुन्दर है और अपने संस्कृति तथा प्राकृतिक सौंदर्य के कारण सहज ही सम्मोहित करने वाला है । कार्नेलिया भारत के सौंदर्य से, भारत की संस्कृति से और भारत की प्रकृति से इस तरह प्रभावित है कि वह भारत को अपना देश कह रही है । वह स्वयं एक यवन (युनानी/ग्रीक ) कन्या है । वह भारत पर आक्रमण करने वाले सिकंदर की सेना पति सेल्यूकस की पुत्री है, लेकिन उसका भारत की संस्कृति और प्रकृति से गहरा लगाव भारत को अपना देश कहने के लिए बाते करता है । वह भारत की मधुमय लगने का कारण ही बताती है वह कहती हैं कि भारत मधु माँ इसलिए है भारत सुन्दर इसलिए है क्योंकि यहाँ की जो सुबह हैं यहाँ का का जो सुबह का प्रकाश है सुबह का समय है वह सरस कमलों को अपने गर्भ में धारण किए हुए हैं यानी कि यहाँ के प्रभात वेला में सरोवरों में सुन्दर सुन्दर लाल रंग के कमल खिले रहते हैं या सूरज की लाल लाल किरणें भारत की सदानीरा धरती केस रोवर और नदियों में जब पड़ती है तो ऐसा लगता है कि पूरी भारत भूमि भारत का संपूर्ण जलाशय भारत की समूची प्रकृति लाल लाल कमरों से भर लिए भारत के बन बाग उप मान मैं सीतला मंद सुगंध हवा जब सुबह चलती है तो वृक्षों की सिखाए इस तरह से झूमने लगती है जैसे लगता है कि कोई बालिका इस सौंदर्य को देख कर अत्यंत नृत्य कर रहे भारत की धरती निपटे वसंत की धरती है सुजलाम सुफलाम श्याम अलार्म यह सुझाव है सुंदर फलों से युक्त है फसलों की हरितिमा से युक्त है वंदे मातरम् का विचार नहीं बंकिम जिन विशेशताओं का वर्णन कर रहे हैं उसी का वर्णन यहाँ कार्य लिया के माध्यम से बेसन का प्रसाद ने भी किया है छुट का जीवन हरियाली पर भारत के यू हरी भरी जीवंत हरा रंग जीवंतता का प्रतीक है जीवन का प्रतीक है तो जो भरी भरी अंत धरती है भारत की उस हरी भरी जीवंत धरती पर छुटके हुआ सुबह का प्रकाश सुबह के सूर्य की लाल लाल किरणें ऐसी लग रही है जैसे उन पर किसी ने शुभता के कला सिंदूर बिखेर दिया है कुमकुम बिखेर दिया है कुमकुम मंगल का प्रतीक है शुभता का प्रतीक है और हरितिमा जीवन का इसे देखकर ऐसा लगता है जैसे भारत की हरी भरी धरती सौभाग्यवती हो गई है सुहागण हो गयी है ।
कार्नेलिया का गीत
जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के महान कवि और नाटककार थे, जो छायावाद युग के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।
उनका जन्म 30 जनवरी 1889 को वाराणसी के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनके दादा, सुँघनी साहू, वाराणसी के प्रसिद्ध व्यवसायी थे, और उनका परिवार संस्कृत और साहित्य में गहरी रुचि रखता था। बचपन में ही उनकी माता जी का निधन हो गया, जो उनके जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ गया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी के क्विंस कॉलेज में हुई, और यहीं से उन्होंने साहित्य की ओर अपनी यात्रा शुरू की।
15 नवम्बर 1937 (उम्र 47 वर्ष)
जयशंकर प्रसाद ने हिंदी साहित्य में अनेक विधाओं में रचनाएँ कीं। उनकी कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास इन मुख्य विधाओं में आती हैं। वे छायावाद के सबसे प्रमुख कवि माने जाते हैं, और उनके काव्य में प्रेम, सौंदर्य और कल्पना की विशेष उपस्थिति होती है। उनकी कविताओं में एक विशेष प्रकार की मधुरता और संगीतात्मकता होती है, जो उन्हें एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती है।
प्रसाद ने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विषयों पर भी गहरी रचनाएँ कीं, और उनके साहित्य में भारतीय संस्कृति, गौरव और शौर्य का चित्रण प्रमुख रूप से मिलता है। उनकी कविताओं में भारतीय इतिहास और संस्कृति की पृष्ठभूमि के साथ-साथ मानवीय भावनाओं का भी सुंदर समावेश है। उनका साहित्य शुद्ध प्रेम, त्याग और समर्पण के उच्च मानवीय मूल्यों की ओर संकेत करता है।
जय शंकर प्रसाद की रचनाओं में भारतीय इतिहास और संस्कृति के गौरव का उदात्त स्वर सुनाई पड़ता है ।
इनकी रचनाओं को भारत की ब्रिटिश गुलामी और यूरोपीय इतिहासकारों द्वारा भारत के इतिहास भी आप विद्यार्थियों के साथ रखकर पढ़ा जाना चाहिए ।
‘ कार्नेलिया का गीत’ इसी तरह की एक रचना है यह जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक चंद्रगुप्त का हिस्सा है ।