बुधवार, 3 सितंबर 2025

व्यंजना


व्यंजना का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है 'प्रकाशित करना'। 

व्यंजक शब्द के वाच्यार्थ या लक्ष्यार्थ से भिन्न तीसरे प्रकार का अर्थ प्रकाशित होने पर व्यंग्य माना जाता है। यह व्यंग्यार्थ व्यंजना शक्ति से ही प्रकाशित होता है । विद्यालय जाने वाले छात्र से यदि उसकी माता कहे,'नौ बज गए हैं' तो इसका अर्थ होगा : 'पाठशाला का समय हो गया है, तैयार हो जाओ।' यह अर्थ व्यंजना-शक्ति के उपयोग से ही सूचित होता है।

व्यंजना के दो मुख्य भेद हैं: 

(१) शाब्दी व्यंजना (२) आर्थी व्यंजना । 

शाब्दी व्यंजना के पुनः दो रूप हो गए हैं:

(क) अभिधामूला शाब्दी व्यंजना ' (ख) लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना ।

कई अर्थों में से जब किन्हीं कारणों अनेकार्थी शब्दों से व्यंजित होने वाले से एक विशिष्ट अर्थ ग्रहण कर लिया जाता है, तब दूसरे अर्थ का प्रकाशन अभिधामूला शाब्दी व्यंजना द्वारा ही होता है यथा 


'चिरजीवो, जोरी जुरै क्यों न सनेह गंभीर । 

को धटि, ये वृषभानुजा , वे हलधर के बीर ॥


इस प्रसंग में राधा के साथ उनकी सखियों का व्यंग्य-विनोद ज्ञापित है। 'वृक भान्जा' और 'हलघर के चीर' अनेकार्थी शब्द है। इनके निम्नांकित अर्थ

विचारणीय है:

१. वृषभानुजा

(क) वृषभानु की पुत्री अर्थात् राधा (ख) वृषभ-अनुजा अर्थात गाय ।

२. हलधर के बीर

(क) बलदाऊ के भाई अर्थात् कृष्ण

(ख) बेल के भाई अर्थात् बैल ।


दोनों अयों में (क) भाग का अर्थ हो स्वीकृत है किन्तु व्यंग्य-विनोद में (ख) भाग का अर्थ शाब्दी व्यंजना के कारण प्रकाशित होता है। यहाँ यह अर्थ भी अभिवेयार्य के रूप में प्राप्त है। इसीलिए 'गाय' और 'बैल' के रूप में प्राप्त अर्थ 'अभिधामूला शाब्दी व्यंजना' का प्रतिफल है।


जब लक्ष्यार्थ के माध्यम से व्यंग्वार्थ की सूचना मिलती है तब लक्षणामूला व्यंजना होती है। लक्षणामूला व्यंजना का परिचय निम्नांकित पवित से प्राप्त किया जा सकता है -


'काशी नगरी पवित्न गंगा पर बसी है।'

 इस संदर्भ में 'गंगा पर' बसने का अर्थ 'गंगा तट पर बसना' लक्षणा शक्ति के द्वारा सूचित ोता है। गंगा के साथ पवित्र का संयोग है। इस आधार पर व्यंजना निकलती है कि पवित्न गंगा के तट पर बसने के कारण काशी नगरी भी पवित्र है। अतः स्पष्ट है कि यहाँ लक्षणा के माध्यम से व्यंग्यार्थ की उपलब्धि हुई है। इसीलिए इस कथन में लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना मान्य है।


आर्थी व्यंजना में हम किसी अर्थ के माध्यम से व्यंग्यार्थ पर पहुँचते हैं। इस कार्य में कभी तो अभिधेयार्थ सीधे सहायक होता है और कभी अभिधेयार्थ से लक्ष्यार्थ को ग्रहण करते हुए व्यंग्यार्थ पर पहुँचने की प्रक्रिया पूर्ण होती है। आर्थी व्यजना के फलस्वरूप ही 'नो बज गए' का व्यंग्यार्थ 'पाठशाला जाने का समय हो गया' सूचित होता है।


लक्षणा और व्यंजना शक्ति के प्रयोग से ही कवि अपने काव्य में भावों को सफलतापूर्वक गुम्फित करता है और चमत्कार उत्पन्न करता है। काव्य में इन शक्तियों का जितना ही अधिक प्रयोग होता है उतना ही रस-तत्त्व पुष्ट होता है। 

लक्षणा

मुख्यार्थ को छोड़ कर उससे संबंधित और संगत अर्थ को संकेतित करने वाली शब्द शक्ति लक्षणा है। पूर्वोक्त अभिमान में बना' वाक्य में 'डबना शब्द का अर्थ 'भरा होना लक्षणा शक्ति का ही परिणाम है। 'डबना का मुख्य अर्थ जब बाधित हो गया तब लक्षणा ने अपना कार्य किया और उसने लक्ष्यार्थ को सूचित किया।


जब वक्ता मुख्यार्थ या वाच्यार्थ से अपने भाव को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाता, तब वह लक्षणा शक्ति का उपयोग करता है। इस प्रकार 'लक्षणा' के लिए तीन शर्ते मान्य है ।


१. मुख्यार्थ बाध,

२. मुख्यार्थ सम्बन्ध,

३. प्रयोजन रूढ़ि 

लक्षणा के भेद : मुख्यार्थ बाघ होने पर उससे संबद्ध दूसरा संगत अर्थ जव


किसी धर्म या गुण के आधार पर व्यक्त होता है, तब गौणी लक्षणा होती है। 'चौकन्ना होना' में 'चौकन्ना' शब्द का मुख्यार्थ है- 'चार कानों वाला' । इसका लक्ष्यार्थ 'सावधान' है। इन दोनों अर्थों पर ध्यान देने पर स्पष्ट होता है कि मुख्यार्थ के बाधित होने पर भी उसका लक्ष्यार्थ से सादृश्य संबंध है। इसीलिए यहाँ गोणी लक्षणा है।


हम पुलिस को देखकर कहते हैं कि 'लाल पगड़ी' जा रही है। यहाँ 'लाल पगड़ी' शब्द का मुख्यार्थ बाधित हो गया है। उसका पुलिस अर्थ हमे लक्षणा शक्ति से ज्ञात हुआ है। 'लाल पगड़ी' और 'पुलिस' में किसी धर्म या गुण की समानता नहीं है। 'लाल पगड़ी' तो धारण की जाने वाली एक बस्तु है। पुलिस उसे धारण करने वाला व्यक्ति है। इस प्रकार यहाँ गुण-सादृश्य सम्बन्ध न होकर दूसरे प्रकार का सम्बन्ध उपस्थित है। ऐसी स्थिति में 'लाल पगड़ी' का लक्ष्यार्थ 'पुलिस' सूचित करने वाली शक्ति को शुद्ध लक्षणा वहते हैं।


लक्षणा को प्रयोजन और उसकी रूढ़ स्थिति के आधार पर दो श्रेणियों में बाँटा गया है- (१) रूढ़ि लक्षणा (२) प्रयोजनवती लक्षणा । रूढ़ि लक्षणा में रूढ़ि के अनुसार लक्षणा होती है। रूढ़ि का अर्थ प्राचीन प्रयोग समझना चाहिए । एक उदाहरण लीजिए -


'तैमूर के आक्रमण का समाचार सुनकर सारा देश भयभीत हो उठा' । यहाँ 'सारा देश' का अर्थ 'सम्पूर्ण देशवासी' है। प्राचीन प्रयोग में ही 'देश' का 'देशवासी' अर्थ रूढ़ हो उठा है। यह अर्थ लक्ष्यार्थ होते हुए भी रूढ़ है। इस-लिए यहाँ 'रूढ़ि लक्षणा' है ।


जब लक्षणा शक्ति का उपयोग प्रयोजन के अनुसार किया जाता है, तब 'प्रयोजनवती लक्षणा' सिद्ध होती है। काशी नगरी गंगों पर दसी हैं' में 'गंगा पर' का सामान्य अर्थ 'गंगा की धारा पर' होता है, किन्तु कोई नगरी नदी की धारा पर नहीं बस सकती । यहाँ 'गंगा पर' से प्रयोजन है 'गंगा तट पर', इसलिए प्रयोजनवती लक्षणा के कारण इसका अर्थ हुआ 'काशी नगरी गंगा के तट पर बसी है' ।


काव्य में दो वस्तुओं के बीच जब उपमा दी जाती है तब जिसकी उपमा दी जाती है उसे उपमेय और जिससे उपमा की जाती हैं उसे उपमान कहते हैं। उपमेय और उपमान दोनों का एक साथ कथन करने की क्रिया 'आरोप' कह-लाती है। ऐसी स्थिति में सारोपा लक्षणा मान्य होती है।


जब केवल उपमान का कथन होता है और इस रूप में उपमान उपमेया पर छा जाता है तब साध्यवसाना लक्षणा मानी जाती है। अध्यवसान का अर्थ है 'छ। जाना' । 'खेलते दो खंजन सुकुमार' में दो खंजन आँखों के उपमान हैं। इस कथन में उपमान तो कथित हुआ है पर उण्पेय का कथन नहीं है। इस लिए यहाँ 'साध्यवसाना लक्षणा' है ।


लक्षणा के विविध रूपों का अध्ययन करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि लक्षणा के निम्नांकित भेद हैं-


1. गोणी लक्षणा और शुद्ध लक्षणा ।


२. रूढ़ि लक्षणा और प्रयोजनवती लक्षणा ।


३. सारोरा लक्षणा और साध्यवसाना लक्षणा ।

अभिधा शब्द शक्ति (Denotation):

 यह शब्द की वह शक्ति है जो उसके पूर्व निर्धारित या मुख्य अर्थ का बोध कराती है, जिसे अभिधेयार्थ या मुख्यार्थ कहते हैं.

  • शब्द के अर्थ का निर्धारण व्यवहार, आप्त वाक्य, कोश और व्याकरण द्वारा होता है.
  • मुख्यार्थ को व्यक्त करने वाले शब्द 'वाचक शब्द' कहलाते हैं, जो तीन प्रकार के होते हैं:
    1. रूढ़ शब्द: वे शब्द जिनके खंड करने पर कोई अर्थ नहीं निकलता और जिनका अर्थ पूर्व निर्धारित होता है (जैसे: जल, कमल).
    2. यौगिक शब्द: वे शब्द जिनका खंड किया जा सकता है और जिनमें उपसर्ग या प्रत्यय का योग होता है (जैसे: दासता, अनुचित).
    3. योगरूढ़ शब्द: वे शब्द जो यौगिक होते हुए भी रूढ़ अर्थ प्रकट करते हैं, यानी उनके खंड किए जा सकते हैं लेकिन वे किसी विशेष अर्थ के लिए रूढ़ हो जाते हैं (जैसे: पंकज - 'पंक' और 'ज' का योग, जिसका शाब्दिक अर्थ 'कीचड़ में उत्पन्न होने वाला' है, लेकिन यह केवल कमल के लिए रूढ़ हो गया है).
  • कुछ वाचक शब्द एकार्थक होते हैं (जैसे: पुस्तक) और कुछ अनेकार्थक (जैसे: गोली, टीका, कर), जिनका अर्थ संदर्भ के अनुसार बदलता है.