बुधवार, 3 सितंबर 2025

लक्षणा

मुख्यार्थ को छोड़ कर उससे संबंधित और संगत अर्थ को संकेतित करने वाली शब्द शक्ति लक्षणा है। पूर्वोक्त अभिमान में बना' वाक्य में 'डबना शब्द का अर्थ 'भरा होना लक्षणा शक्ति का ही परिणाम है। 'डबना का मुख्य अर्थ जब बाधित हो गया तब लक्षणा ने अपना कार्य किया और उसने लक्ष्यार्थ को सूचित किया।


जब वक्ता मुख्यार्थ या वाच्यार्थ से अपने भाव को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाता, तब वह लक्षणा शक्ति का उपयोग करता है। इस प्रकार 'लक्षणा' के लिए तीन शर्ते मान्य है ।


१. मुख्यार्थ बाध,

२. मुख्यार्थ सम्बन्ध,

३. प्रयोजन रूढ़ि 

लक्षणा के भेद : मुख्यार्थ बाघ होने पर उससे संबद्ध दूसरा संगत अर्थ जव


किसी धर्म या गुण के आधार पर व्यक्त होता है, तब गौणी लक्षणा होती है। 'चौकन्ना होना' में 'चौकन्ना' शब्द का मुख्यार्थ है- 'चार कानों वाला' । इसका लक्ष्यार्थ 'सावधान' है। इन दोनों अर्थों पर ध्यान देने पर स्पष्ट होता है कि मुख्यार्थ के बाधित होने पर भी उसका लक्ष्यार्थ से सादृश्य संबंध है। इसीलिए यहाँ गोणी लक्षणा है।


हम पुलिस को देखकर कहते हैं कि 'लाल पगड़ी' जा रही है। यहाँ 'लाल पगड़ी' शब्द का मुख्यार्थ बाधित हो गया है। उसका पुलिस अर्थ हमे लक्षणा शक्ति से ज्ञात हुआ है। 'लाल पगड़ी' और 'पुलिस' में किसी धर्म या गुण की समानता नहीं है। 'लाल पगड़ी' तो धारण की जाने वाली एक बस्तु है। पुलिस उसे धारण करने वाला व्यक्ति है। इस प्रकार यहाँ गुण-सादृश्य सम्बन्ध न होकर दूसरे प्रकार का सम्बन्ध उपस्थित है। ऐसी स्थिति में 'लाल पगड़ी' का लक्ष्यार्थ 'पुलिस' सूचित करने वाली शक्ति को शुद्ध लक्षणा वहते हैं।


लक्षणा को प्रयोजन और उसकी रूढ़ स्थिति के आधार पर दो श्रेणियों में बाँटा गया है- (१) रूढ़ि लक्षणा (२) प्रयोजनवती लक्षणा । रूढ़ि लक्षणा में रूढ़ि के अनुसार लक्षणा होती है। रूढ़ि का अर्थ प्राचीन प्रयोग समझना चाहिए । एक उदाहरण लीजिए -


'तैमूर के आक्रमण का समाचार सुनकर सारा देश भयभीत हो उठा' । यहाँ 'सारा देश' का अर्थ 'सम्पूर्ण देशवासी' है। प्राचीन प्रयोग में ही 'देश' का 'देशवासी' अर्थ रूढ़ हो उठा है। यह अर्थ लक्ष्यार्थ होते हुए भी रूढ़ है। इस-लिए यहाँ 'रूढ़ि लक्षणा' है ।


जब लक्षणा शक्ति का उपयोग प्रयोजन के अनुसार किया जाता है, तब 'प्रयोजनवती लक्षणा' सिद्ध होती है। काशी नगरी गंगों पर दसी हैं' में 'गंगा पर' का सामान्य अर्थ 'गंगा की धारा पर' होता है, किन्तु कोई नगरी नदी की धारा पर नहीं बस सकती । यहाँ 'गंगा पर' से प्रयोजन है 'गंगा तट पर', इसलिए प्रयोजनवती लक्षणा के कारण इसका अर्थ हुआ 'काशी नगरी गंगा के तट पर बसी है' ।


काव्य में दो वस्तुओं के बीच जब उपमा दी जाती है तब जिसकी उपमा दी जाती है उसे उपमेय और जिससे उपमा की जाती हैं उसे उपमान कहते हैं। उपमेय और उपमान दोनों का एक साथ कथन करने की क्रिया 'आरोप' कह-लाती है। ऐसी स्थिति में सारोपा लक्षणा मान्य होती है।


जब केवल उपमान का कथन होता है और इस रूप में उपमान उपमेया पर छा जाता है तब साध्यवसाना लक्षणा मानी जाती है। अध्यवसान का अर्थ है 'छ। जाना' । 'खेलते दो खंजन सुकुमार' में दो खंजन आँखों के उपमान हैं। इस कथन में उपमान तो कथित हुआ है पर उण्पेय का कथन नहीं है। इस लिए यहाँ 'साध्यवसाना लक्षणा' है ।


लक्षणा के विविध रूपों का अध्ययन करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि लक्षणा के निम्नांकित भेद हैं-


1. गोणी लक्षणा और शुद्ध लक्षणा ।


२. रूढ़ि लक्षणा और प्रयोजनवती लक्षणा ।


३. सारोरा लक्षणा और साध्यवसाना लक्षणा ।

अभिधा शब्द शक्ति (Denotation):

 यह शब्द की वह शक्ति है जो उसके पूर्व निर्धारित या मुख्य अर्थ का बोध कराती है, जिसे अभिधेयार्थ या मुख्यार्थ कहते हैं.

  • शब्द के अर्थ का निर्धारण व्यवहार, आप्त वाक्य, कोश और व्याकरण द्वारा होता है.
  • मुख्यार्थ को व्यक्त करने वाले शब्द 'वाचक शब्द' कहलाते हैं, जो तीन प्रकार के होते हैं:
    1. रूढ़ शब्द: वे शब्द जिनके खंड करने पर कोई अर्थ नहीं निकलता और जिनका अर्थ पूर्व निर्धारित होता है (जैसे: जल, कमल).
    2. यौगिक शब्द: वे शब्द जिनका खंड किया जा सकता है और जिनमें उपसर्ग या प्रत्यय का योग होता है (जैसे: दासता, अनुचित).
    3. योगरूढ़ शब्द: वे शब्द जो यौगिक होते हुए भी रूढ़ अर्थ प्रकट करते हैं, यानी उनके खंड किए जा सकते हैं लेकिन वे किसी विशेष अर्थ के लिए रूढ़ हो जाते हैं (जैसे: पंकज - 'पंक' और 'ज' का योग, जिसका शाब्दिक अर्थ 'कीचड़ में उत्पन्न होने वाला' है, लेकिन यह केवल कमल के लिए रूढ़ हो गया है).
  • कुछ वाचक शब्द एकार्थक होते हैं (जैसे: पुस्तक) और कुछ अनेकार्थक (जैसे: गोली, टीका, कर), जिनका अर्थ संदर्भ के अनुसार बदलता है.

रस क्या है?



भरतमुनि ने रस-निष्पत्ति का सूत्र दिया है –


"विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः।"


अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है।

काव्य को पढ़ने-सुनने या नाटक को देखने से जो विशेष प्रकार का आनन्द प्राप्त होता है, वही रस कहलाता है।


यह रस केवल वही अनुभव कर सकता है जिसे सहृदय (संवेदनशील, भावुक और सामाजिक दृष्टि वाला) कहा जाता है।


यानी, रस का अनुभव पाठक, श्रोता और दर्शक सभी कर सकते हैं।



२. भाव और उसके प्रकार


रस की प्राप्ति में मन की प्रवृत्तियाँ सहायक होती हैं।


मन में जो विविध वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें भाव कहते हैं।


आचार्यों ने भावों को दो वर्गों में बाँटा है –


1. स्थायी भाव



2. संचारी (व्यभिचारी) भाव


(क) स्थायी भाव


ये मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ हैं।


ये प्रत्येक मनुष्य के भीतर सोए रहते हैं और अनुकूल परिस्थिति में जाग्रत हो जाते हैं।


इनकी संख्या मूलतः ९ मानी गई है, लेकिन वत्सल्य (ममता) को जोड़कर १० कर दिया गया है।


इन्हीं से १० रसों की उत्पत्ति होती है।


स्थायी भाव रस


रति (प्रेम) शृंगार रस

हास हास्य रस

शोक करुण रस

क्रोध रौद्र रस

उत्साह वीर रस

भय भयानक रस

जुगुप्सा (घृणा) बीभत्स रस

विस्मय अद्भुत रस

शम/निर्वेद शान्त रस

वत्सल्य (ममता) वात्सल्य रस


(ख) संचारी भाव (व्यभिचारी भाव)


स्थायी भावों के अतिरिक्त वे भाव जो समय-समय पर उत्पन्न और शांत होते रहते हैं, संचारी भाव कहलाते हैं।


ये स्थायी भावों का पोषण और पुष्टिकरण करते हैं।


इनकी संख्या ३३ मानी गई है, जैसे – निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, हर्ष, आवेग, विषाद, निद्रा, उन्माद, त्रास, मरण आदि।


३. रस की सामग्री (रसोत्पादक साधन)


रस की अनुभूति तभी संभव है जब कुछ विशेष सामग्री पाठक या दर्शक के सामने आए। इसे रस की सामग्री कहते हैं। इसके तीन मुख्य घटक हैं –


1. विभाव – भावों को उत्पन्न करने वाले कारण।


आलम्बन विभाव: जिन पर भाव केंद्रित हो (जैसे नायक-नायिका)।


उद्दीपन विभाव: जो भावों को जाग्रत करें (जैसे ऋतु, वन, पुष्प, चन्द्रमा)।


2. अनुभाव – वे बाह्य क्रियाएँ जिनसे आन्तरिक भाव प्रकट होते हैं (जैसे अंग-संचालन, हाव-भाव, वाणी, मुखमुद्रा)।


3. संचारी भाव – वे अस्थायी भाव जो स्थायी भावों को पोषण देते हैं।