बुधवार, 3 सितंबर 2025

रस

 

रस 

काव्य को पढ़ने-सुनने या नाटक को देखने से हमें विशेष प्रकार के आनन्द की प्राप्ति होती है. इसी आनन्द को रस कहते हैं. जो लोग रस प्राप्त करते हैं, उन्हें सहृदय या सामाजिक कहा जाता है. इस प्रकार पाठक, श्रोता और दर्शक सामाजिक या सहृदय कहलाते हैं.


रस या आनन्द की अनुभूति में हमारी प्रवृत्तियां सहायक होती हैं. विभिन्न स्थितियों में हमारे मन की अनेक वृत्तियां बनती रहती हैं. चित्त की इन्हीं वृत्तियों को भाव कहते हैं. आचार्यों ने भावों को दो वर्गों में बांटा है-

(१) स्थायी भाव और (२) संचारी भाव .

स्थायी भाव

मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां स्थायी भाव के रूप में जानी गई हैं. इनकी संख्या नौ हैं. ये स्थायी भाव प्रत्येक मनुष्य के मन में सोए रहते हैं और अनुकूल परिस्थिति में जागृत होते हैं. नौ स्थायी भावों रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय, शम अर्थात् निर्वेद के साथ शिशु के प्रति वत्सल (ममता) को संयुक्त कर लेने पर इनकी संख्या १० हो गई हैं. इन्हीं १० स्थायी भावों से १० प्रकार के आनन्द प्राप्त होते हैं. इसीलिए १० स्थायी भावों से १० रसों की उत्पत्ति स्वीकार की गई है. इनका उल्लेख इस प्रकार है-

स्थायी भाव

रस

१. रति: शृंगार

२. हास: हास्य

३. शोक : करुण

४. क्रोध: रौद्र

उत्साह : वीर

जुगुप्सा (घृणा) : विभत्स 

६. शम या निर्वेद : शान्त

६. भय : भयानक 

८. विस्मय : अद्भुत 

१०. वत्सल:  वात्सल्य


संचारी भाव

दस स्थायी भावों के अतिरिक्त बहुत से अन्य ऐसे भाव भी हैं जो यथा अवसर उत्पन्न और शमित होते रहते हैं. इनका यथासमय स्थायी भावों के साथ संचरण होता है. इसीलिए इन्हें संचारी भाव कहते हैं. इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है. संचारी या व्यभिचारी भावों की संख्या ३३ मानी गई है. ये हैं-

(१) निर्वेद (२) ग्लानि (३) शंका (४) असूया (५) मद (६) श्रम (७) आलस्य (८) दैन्य (६) चिन्ता (१०) मोह (११) स्मृति (१२) धृति (१३) क्रीड़ा (१४) चपलता (१५) हर्ष (१६) आवेग (१७) जड़ता (१८) गर्व (१६) विषाद (२०) औत्सुक्य (२१) निद्रा (२२) अपस्मार (मिरगी) (२३) स्वप्न (२४) विबोध (जागना) (२५) अमर्ष (२६) अवहित्थ (गोपन) (२७) उग्रता (२८) मति (२६) व्याधि (३०) उन्माद (३१) त्रास (३२) वितर्क (३३) मरण .

इन संचारी भावों से स्थायी भाव पुष्ट होते हैं.

सहृदय के स्थायी भाव को उद्बुद्ध कर उसे रस की स्थिति में लाने वाली सामग्री को रस की सामग्री कहते हैं. नायक-नायिका, उनके हाव-भाव प्रकृति परिवेश आदि रस की सामग्री के रूप में मान्य हैं. इस रस-सामग्री को तीन श्रेणियों में रखा गया है -

(१) विभाव (२) अनुभाव (३) संचारी भाव .

इन्हीं तीनों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है. आचार्य भरतमुनि रस-निष्पत्ति के सम्बन्ध में एक सूत्र प्रस्तुत किया है -

'विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः .'

अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है.

विभाव (आलम्बन और उद्दीपन): भावों को उत्पन्न या जागृत करने वाले विशिष्ट बाह्य कारण ही विभाव कहलाते हैं. ये दो प्रकार के होते हैं -

(१) आलम्बन विभाव

(२) उद्दीपन विभाव .

सोमवार, 1 सितंबर 2025

कार्नेलिया का गीत : व्याख्या

 

करनेलिया








सारांश:
कार्नेलिया अपने गीत में  अरुण यानी सुबह के सूर्य को संबोधित करते हुए भारत के प्राकृतिक और सांस्कृतिक सौंदर्य का वर्णन कर रही है।  अरुणिमा नएपन का भी प्रतीक है।  भारत के संस्कृति के दीप्त या प्रकाशित अर्थात उन तत्वों का प्रतीक है, जो भारतीय संस्कृति को विशिष्ट और महान बनाते हैं । कार्नेलिया भारत को संबोधित करते हुए ही भारत और भारत के सांस्कृतिक गौरव को भी संबोधित कर रही है।  वह कह रही है कि यह देश, यह हमारा देश,  यानी यह भारत देश मधुमेह है,  सुन्दर है और अपने संस्कृति तथा प्राकृतिक सौंदर्य के कारण सहज ही सम्मोहित करने वाला है । कार्नेलिया भारत के सौंदर्य से,  भारत की संस्कृति से और भारत की प्रकृति से इस तरह प्रभावित है कि वह भारत को अपना देश कह रही है । वह स्वयं एक यवन (युनानी/ग्रीक )  कन्या है । वह भारत पर आक्रमण करने वाले सिकंदर की सेना पति सेल्यूकस की पुत्री है, लेकिन उसका भारत की संस्कृति और प्रकृति से गहरा लगाव भारत को अपना देश कहने के लिए बाते करता है । वह भारत की मधुमय लगने का कारण ही बताती है वह कहती हैं कि भारत मधु माँ इसलिए है भारत सुन्दर इसलिए है क्योंकि यहाँ की जो सुबह हैं यहाँ का का जो सुबह का प्रकाश है सुबह का समय है वह सरस कमलों को अपने गर्भ में धारण किए हुए हैं यानी कि यहाँ के प्रभात वेला में सरोवरों में सुन्दर सुन्दर लाल रंग के कमल खिले रहते हैं या सूरज की लाल लाल किरणें भारत की सदानीरा धरती केस रोवर और नदियों में जब पड़ती है तो ऐसा लगता है कि पूरी भारत भूमि भारत का संपूर्ण जलाशय भारत की समूची प्रकृति लाल लाल कमरों से भर लिए भारत के बन बाग उप मान मैं सीतला मंद सुगंध हवा जब सुबह चलती है तो वृक्षों की सिखाए इस तरह से झूमने लगती है जैसे लगता है कि कोई बालिका इस सौंदर्य को देख कर अत्यंत नृत्य कर रहे भारत की धरती निपटे वसंत की धरती है सुजलाम सुफलाम श्याम अलार्म यह सुझाव है सुंदर फलों से युक्त है फसलों की हरितिमा से युक्त है वंदे मातरम् का विचार नहीं बंकिम जिन विशेशताओं का वर्णन कर रहे हैं उसी का वर्णन यहाँ कार्य लिया के माध्यम से बेसन का प्रसाद ने भी किया है छुट का जीवन हरियाली पर भारत के यू हरी भरी जीवंत हरा रंग जीवंतता का प्रतीक है जीवन का प्रतीक है तो जो भरी भरी अंत धरती है भारत की उस हरी भरी जीवंत धरती पर छुटके हुआ सुबह का प्रकाश सुबह के सूर्य की लाल लाल किरणें ऐसी लग रही है जैसे उन पर किसी ने शुभता के कला सिंदूर बिखेर दिया है कुमकुम बिखेर दिया है कुमकुम मंगल का प्रतीक है शुभता का प्रतीक है और हरितिमा जीवन का इसे देखकर ऐसा लगता है जैसे भारत की हरी भरी धरती सौभाग्यवती हो गई है सुहागण हो गयी है । 

कार्नेलिया का गीत

 जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के महान कवि और नाटककार थे, जो छायावाद युग के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।


 उनका जन्म 30 जनवरी 1889 को वाराणसी के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनके दादा, सुँघनी साहू, वाराणसी के प्रसिद्ध व्यवसायी थे, और उनका परिवार संस्कृत और साहित्य में गहरी रुचि रखता था। बचपन में ही उनकी माता जी का निधन हो गया, जो उनके जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ गया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी के क्विंस कॉलेज में हुई, और यहीं से उन्होंने साहित्य की ओर अपनी यात्रा शुरू की।

15 नवम्बर 1937 (उम्र 47 वर्ष)

जयशंकर प्रसाद ने हिंदी साहित्य में अनेक विधाओं में रचनाएँ कीं। उनकी कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास इन मुख्य विधाओं में आती हैं। वे छायावाद के सबसे प्रमुख कवि माने जाते हैं, और उनके काव्य में प्रेम, सौंदर्य और कल्पना की विशेष उपस्थिति होती है। उनकी कविताओं में एक विशेष प्रकार की मधुरता और संगीतात्मकता होती है, जो उन्हें एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती है।

प्रसाद ने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विषयों पर भी गहरी रचनाएँ कीं, और उनके साहित्य में भारतीय संस्कृति, गौरव और शौर्य का चित्रण प्रमुख रूप से मिलता है। उनकी कविताओं में भारतीय इतिहास और संस्कृति की पृष्ठभूमि के साथ-साथ मानवीय भावनाओं का भी सुंदर समावेश है। उनका साहित्य शुद्ध प्रेम, त्याग और समर्पण के उच्च मानवीय मूल्यों की ओर संकेत करता है।

जय शंकर प्रसाद की रचनाओं में भारतीय इतिहास और संस्कृति के गौरव का उदात्त स्वर सुनाई पड़ता है । 

इनकी रचनाओं को भारत की ब्रिटिश गुलामी और यूरोपीय इतिहासकारों द्वारा भारत के इतिहास भी आप विद्यार्थियों के साथ रखकर पढ़ा जाना चाहिए । 

‘ कार्नेलिया का गीत’ इसी तरह की एक रचना है यह   जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक चंद्रगुप्त का हिस्सा है ।