सोमवार, 21 जुलाई 2025

अरे इन दोहुन राह न पाई...


अरे इन दोहुन...

अरे इन दोहुन राह न पाई।
हिंदू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई। बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई। खाला केरी बेटी ब्याहै घरहिं में करै सगाई।
बाहर से इक मुर्दा लाए धोय-धाय चढ़वाई। सब सखियाँ मिलि जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।
हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई। कहैं कबीर सुनो भाई साधो कौन राह ह्वै जाई॥

शब्दार्थ

दोहुन दोनों 
राह         रास्ता 
पाई         पाना (क्रिया)
छुवन छूना
गागर घड़ा
पायन-तर पैरों के नीचे
खाला मौसी
जेंवन चाव से खाना 
बड़ाई तारीफ
तुरकन मुसलमानों
साधो  सज्जन लोग

संदर्भ : प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 1 के कबीर दास नामक पाठ से लिया गया है, जिसमें भक्ति काल के प्रमुख संत कवि कबीर दास के दो पद संकलित हैं। यह पद उनमें से एक है ।


प्रसंग: इस पद में कबीर दास ने अपने समय में भारतीय समाज में मौजूद दोनों धर्मों (हिंदू और मुसलमान) की सामाजिक रूढ़ियों की आलोचना करते हुए दोनों को अस्वीकार किया है| 


व्याख्या : कबीर दास हिंदू धर्म की सामाजिक रूढ़ियों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि इस समाज में भेदभाव के कारण कुछ तथाकथित ॐची जातियों के लोग नीची जातियों के लोगों के हाथों से छुए घड़े का पानी नहीं पीते हैं और वही लोग वैश्या के पास जाने में किसी प्रकार के छुआछूत काबर्ताव नहीं करते । कबीर कहते हैं कि केवल जन्म के आधार पर काल्पनिक ऊँच-नीच की बात करने वाले किसी को छोटा और अछूत मानने वाले लोग अपना शरीर बेचने वाली स्त्री के पास जाने में संकोच नहीं करते जो जन्म से नहीं कर्म से बुरी और निंदनीय है । 
 इसी तरह मुस्लिम धर्म की बुराइयों को रेखांकित करते हुए भी यह कहते हैं कि मुसलमानों के धर्म-गुरु पीर और आलिया मांसाहार करते हैं, जो हिंसक है— बुरा है । मुस्लिम समाज में मौसी की बेटी से ही विवाह और परिवार के भीतर सगाई की प्रथाएं बुरी भी हैं । जिन्हें आपस में भाई-बहन होना चाहिए वे एक दूसरे से विवाह कर लेते हैं । इससे परिवार की मर्यादा और सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था बिगड़ती है । 
वे कहते हैं कि ये प्रथाएं कुछ इस तरह हैं जैसे हम घर के बाहर से कोई मुर्दा ले आकर उसे अच्छी तरह पकाएँ  और सभी सदस्यों/साथियों के साथ स्वाद लेकर खाएँ। उसकी तारीफ भी करें । दरअसल कबीर इन कथाओं को ही मुर्दा कह रहे हैं और उनके समर्थकों को मुर्दा खाने वाला । 
वह कहते हैं कि मैंने हिंदुओं का हिंदुत्व और तुर्कों (मुसलमान) की मुसलमानियत देख ली है। मैं इन दोनों की बुराइयों और सीमाओं से परिचित हूं। इसलिए हे सज्जन लोगो ! आप ही बताओ कि मैं इन दोनों में से किस रास्ते पर चलूं ?  अर्थात मेरे लिए ये दोनों रास्ते स्वीकार करने योग्य नहीं है।


विशेष: 
कबीर का पालन पोषण एक मुस्लिम जुलाहा परिवार में हुआ था और वे वैष्णव संत रामानन्द के शिष्य थे । इसका प्रभाव उनपर गहरा था । इसलिए वे हिन्दू समाज के छूआ-छूत के साथ ही मुस्लिम धर्म में हिंसा की स्वीकृति और परिवार में वैवाहिक संबंध की समान रूप से आलोचना करते हैं। 

काव्य सौन्दर्य : 
  • भावसौंदर्य : धार्मिक समानता का संदेश और रूढ़ि विरोध के कारण मुखर प्रतिवादी स्वर । 
  • शिल्प सौन्दर्य : 
  1. छंद : सबद (पद) रस : विरह शृंगार
  2. अलंकार : ‘घर-भर’ में अनुप्रास अलंकार । 
  3. भाषा : पंचमेल खिचड़ी /साधुक्कड़ी ।

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