रविवार, 1 नवंबर 2020

प्रयोगवादी कविता

सप्तक और प्रयोगवाद:

सप्तक का संदर्भ उस महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन से है जिसे हिंदी कविता में प्रयोगवाद के रूप में जाना जाता है। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तारसप्तक’ (1943) को हिंदी कविता में प्रयोगवाद की शुरुआत के रूप में माना जाता है। ‘तारसप्तक’ में सात प्रमुख कवियों की कविताओं को शामिल किया गया था, जो हिंदी कविता की एक नई दिशा की ओर इशारा कर रहे थे। ये कवि पुराने शिल्प, प्रतीकों और उपमानों को नकारते हुए, नई भाषा, शिल्प और विचारधारा की खोज में थे।

प्रयोगवाद की विशेषताएँ:

प्रयोगवाद का जन्म पुराने काव्य शिल्प और काव्यात्मक सिद्धांतों से असंतोष और विद्रोह के परिणामस्वरूप हुआ था। इस साहित्यिक आंदोलन ने कविता की पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती दी और एक नई तरह की कविता की रचना की।

प्रयोगवाद की प्रवृत्तियाँ:

  1. आधुनिकतावाद का प्रभाव: प्रयोगवादी कविता पर यूरोपीय आधुनिकतावाद का गहरा प्रभाव था। यह आंदोलन पारंपरिक और रूढ़िवादी काव्यशास्त्र से अलग, आधुनिकता और व्यक्तित्व के महत्व को मान्यता देता था।

  2. व्यक्तिवाद: प्रयोगवाद के तहत कविता में व्यक्तिगत जीवन और अस्तित्व की जटिलताओं को प्राथमिकता दी गई। यह कविता एक तरह से व्यक्तिगत अनुभवों और अस्तित्व की पहचान को व्यक्त करती है।

  3. बुद्धि का महत्त्व: भावना की जगह बुद्धि को अहमियत दी गई। यह कविता विचारप्रधान और तर्कपूर्ण होती थी, जिसमें संवेदनाओं और व्यक्तित्व के बजाय तर्क और दार्शनिक विचारों का प्रवाह अधिक होता था।

  4. मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण: प्रयोगवादी कविता में विशेष रूप से मध्यवर्गीय जीवन की जटिलताओं और संघर्षों को प्रस्तुत किया गया।

  5. संदेह और अनास्था: द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रभाव के कारण कविता में संदेह, अनास्था और अनिश्चितता की भावना देखने को मिलती है।

  6. नए प्रतीक और उपमान: प्रयोगवादी कवियों ने पुराने प्रतीकों और उपमानों को नकारते हुए नए प्रतीक, उपमान और भाषा का प्रयोग किया। इससे कविता में नवीनता और ताजगी आई।

  7. भाषा-शैली की विविधता: प्रयोगवादी कवि कविता की भाषा में विविधता पर जोर देते थे। वे मानते थे कि कविता की भाषा-शैली में एकरूपता को रूढ़िवादिता माना जाता है, और इसका विरोध करते थे।

प्रयोगवाद के तीन मुख्य पहलू:

  1. व्यक्ति को महत्त्व: प्रयोगवादी कविता में व्यक्ति की स्वतंत्रता और निजी पहचान को महत्व दिया गया। जैसे अज्ञेय की कविता "यह दीप अकेला स्नेह भरा..." में व्यक्तित्व और अस्तित्व के संघर्ष को प्रमुखता दी जाती है। इसमें व्यक्तिगत जीवन, विचार और भावनाओं को व्यक्त किया गया है।

  2. प्रयोगशीलता: प्रयोगवादी कवियों ने कविता के पुराने पैटर्न और शिल्प को अस्वीकार कर दिया और शिल्प, भाषा, प्रतीक, उपमान आदि में नए प्रयोग किए। उदाहरण के लिए, गजानन माधव मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नेमिचंद्र जैन, और अज्ञेय जैसे कवियों ने कविता की परंपराओं को चुनौती दी और नए विचार, शिल्प और प्रतीकों का निर्माण किया।

  3. विविधता: प्रयोगवादी कविता में शिल्प और भाषा की विविधता होती थी। एक कवि की अलग-अलग कविताओं में भाषा और शिल्प के रूप में भिन्नता दिखाई देती थी। यही वजह थी कि प्रयोगवादी कविता एक निश्चित पैटर्न में नहीं बँधी थी, बल्कि यह विविधतापूर्ण होती थी।

सप्तक का महत्व:

तारसप्तक’ और बाद में ‘दूसरा सप्तक’ ने हिंदी कविता को एक नई दिशा दी। इन संकलनों में कविता की नयी शैलियों और प्रयोगों की झलक मिलती है। तारसप्तक के कवि नए विचारधाराओं और साहित्यिक प्रयोगों के साथ कविता की पुरानी सीमाओं को तोड़ने में लगे थे। यह कविता का एक व्यक्तिवादी रूप था, जिसमें कवि अपनी निजी भावनाओं, अस्तित्व के संकटों और सामाजिक सन्दर्भों पर अपनी दृष्टि रखते थे।

निष्कर्ष:

प्रयोगवाद एक महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन था जिसने हिंदी कविता में नये विचारों और शिल्प को जन्म दिया। यह कविता में नवीनता, व्यक्तिवाद और शिल्पगत प्रयोग का प्रतीक बनकर उभरी। सप्तक ने हिंदी कविता में एक नई ताजगी और दिशा लाई और यह कविता की परंपराओं को चुनौती देते हुए कविता को एक व्यक्तिगत और बौद्धिक मंच प्रदान किया।

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

मलिक मुहम्मद जायसी

 

मलिक मुहम्मद जायसी (1492 ई. - ?) को हिंदी साहित्य में एक महान सूफी कवि माना जाता है। वे प्रेमाश्रयी (प्रेममार्गी) कवि थे, जिन्होंने सूफी विचारधारा को अपनी कविता में बहुत गहराई से उतारा। उनका काव्य जीवन और प्रेम के सूफी दृष्टिकोण का प्रतीक था। 'पद्मावत' उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है, जिसे अवधी भाषा में लिखा गया था। इसमें राजा रतनसेन और राजकुमारी पद्मावती के प्रेम की कथा है। इस काव्य के माध्यम से जायसी ने प्रेम को एक आध्यात्मिक अनुभव के रूप में चित्रित किया।

जायसी के विचार और उनके काव्य की विशेषताएँ:

  1. प्रेम संबंधी विचार: जायसी के अनुसार प्रेम एक दिव्य और आत्मा को मोक्ष देने वाला अनुभव है। उनका प्रसिद्ध कथन है—

    "मानुस पेम भयउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार भरि मूठी।"
    इसका अर्थ है कि प्रेम ही मानव को स्वर्ग (बैकुंठ) तक पहुँचा सकता है, अन्यथा जीवन में कोई वास्तविक मूल्य नहीं है। जायसी के अनुसार प्रेम केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूप में सर्वोत्तम है। यह विचार सूफी प्रेम के सिद्धांत को ही दर्शाता है, जिसमें प्रेम को ईश्वर से मिलने का माध्यम माना जाता है।

  2. गुरु संबंधी विचार: जायसी का मानना था कि गुरु ही उस मार्ग को दिखाता है, जो आत्मा को सत्य तक पहुँचाता है। उनके अनुसार बिना गुरु के कृपा के कोई भी व्यक्ति ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकता।

    "गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा, बिनु गुरु कृपा को निरगुन पावा।"

  3. ब्रह्म संबंधी विचार: जायसी के अनुसार पद्मावती का प्रतीक ईश्वर है, जबकि रतनसेन का प्रतीक मनुष्य या जीव है। उनका यह दर्शन सूफी विचारधारा से प्रभावित था, जिसमें ईश्वर और जीव के बीच प्रेम को केंद्रित किया गया है। पद्मावती और रतनसेन के प्रेम की कथा, उनकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा के बीच का प्रेम ही है।

  4. नागमती का वियोग: जायसी की कविता में नागमती के वियोग का वर्णन विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस कथा में प्रेमिका के वियोग में व्यक्ति का दुख और पीड़ा को चित्रित किया गया है। यह वियोग, रचनात्मक रूप से बारहमासा के रूप में व्यक्त किया गया है। बारहमासा एक काव्य रूप है जिसमें वर्ष के बारह महीनों में प्रेमिका के वियोग का वर्णन किया जाता है।

  5. बारहमासा: बारहमासा एक विशेष काव्यशैली है जिसका प्रयोग जायसी ने वियोग के दुःख को व्यक्त करने के लिए किया। यह काव्य रूप विशेष रूप से प्रेम और वियोग के भावों को व्यक्त करता है, जिसमें साल के प्रत्येक महीने में प्रेमिका के वियोग का वर्णन किया जाता है। इस शैली का उपयोग जायसी ने नागमती के वियोग के वर्णन में किया।

  6. पद्मावत और मसनवी शैली: ‘पद्मावत’ एक मसनवी शैली में लिखा गया काव्य है। मसनवी शैली सूफी काव्य की एक प्रमुख शैली है, जिसमें कथात्मक रूप से प्रेम और ईश्वर के साथ आत्मा के मिलन की कथा को व्यक्त किया जाता है। जायसी की काव्यशैली में प्रेम, भक्ति और सूफी दर्शन के गहरे विचार समाहित हैं।

निष्कर्ष:

जायसी ने अपनी काव्य रचनाओं में सूफी विचारधारा और प्रेम के आध्यात्मिक स्वरूप को प्रकट किया। उनकी ‘पद्मावत’ में प्रेम को केवल शारीरिक आकर्षण से अलग, एक आत्मिक और दिव्य अनुभव के रूप में चित्रित किया गया है। उनकी कविताएँ न केवल प्रेम के शारीरिक रूप को, बल्कि प्रेम को आत्मा और परमात्मा के मिलन के रूप में प्रस्तुत करती हैं। उनके विचार और काव्य शिल्प हिंदी साहित्य में सूफी दृष्टिकोण की महत्वपूर्ण परंपरा के रूप में देखे जाते हैं।4o mini

बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

संत कबीर: जीवन और विचार


जीवन परिचय
संत कबीर का जन्म संवत् 1455 (1398 ई.) में बनारस (वर्तमान वाराणसी) में हुआ था। उन्हें नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपति ने पाला था, और यह बात बहुत ही अद्वितीय है क्योंकि कबीर का पालन-पोषण एक जुलाहे के परिवार में हुआ था। उनके जीवन के बारे में कई प्रकार की कथाएँ प्रचलित हैं, लेकिन उनका साक्षात जीवन और कार्य उनकी वाणी के माध्यम से ही जीवित रहता है। कबीर का कार्य जुलाहे का था, और वे विशेष रूप से ज्ञानमार्गी कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए।

कबीर की शिक्षा-दीक्षा सामान्यत: नहीं हुई थी। वे स्वयं स्वीकार करते थे, "मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ", अर्थात उन्होंने कभी पुस्तक, कलम या कागज का प्रयोग नहीं किया। बावजूद इसके, उनकी कविताएँ, जो आज भी प्रचलित हैं, साहित्य, दर्शन और भक्ति की एक अमूल्य धरोहर मानी जाती हैं।

कबीर की वाणी और रचनाएँ
संत कबीर की वाणी का संकलन 'बीजक' में किया गया है। इस संकलन के तीन प्रमुख खंड हैं:

  1. साखी - इसमें कबीर के अद्वितीय विचार और अनुभव होते हैं, जिन्हें बहुत ही सरल और सीधी भाषा में व्यक्त किया गया है।
  2. सबद - यह खंड कबीर के भक्ति संगीत और कविताओं का संग्रह है।
  3. रमैनी - इसमें कबीर की कुछ विशिष्ट रचनाएँ और उनके विचारों का विस्तार से वर्णन किया गया है।

कबीर के प्रमुख विचार
कबीर की कविताएँ और विचार बहुत गहरे और समय से परे हैं। उनके विचार निम्नलिखित बिंदुओं पर आधारित थे:

  1. कविता के बारे में – कबीर ने कविता को केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि ब्रह्म ज्ञान के रूप में माना था। उनका कहना था, "तुम जिन जानो गीत है वह निज ब्रह्म विचार," अर्थात, कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि ब्रह्म की समझ और सत्य का साक्षात्कार है।

  2. निर्गुण ब्रह्म के बारे में – कबीर ने निर्गुण ब्रह्म (जिसका कोई रूप या आकार नहीं होता) की महत्वपूर्ण अवधारणा को प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि ब्रह्म न तो किसी का रूप है और न ही किसी का आकार। वे कहते थे:
    "जाके मुख माथा नहीं नाहीं रूप कुरूप,
    पुहुप बास तैं पातरा ऐसो तत्त अनूप।"
    अर्थात, ब्रह्म न तो किसी का रूप है, न आकार, और वह सबका आधार है।

  3. प्रेम को महत्व – कबीर के लिए प्रेम सर्वोपरि था। उन्होंने प्रेम को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना और इसे आत्मा के ब्रह्म से जुड़ने का मार्ग समझा। उनका कहना था, "कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नहिं," यानी प्रेम वह घर है जहां ईश्वर निवास करते हैं।

  4. मूर्ति-पूजा का विरोध – कबीर ने मूर्ति पूजा का कड़ा विरोध किया। उन्होंने कहा, "पाहन पूजे हरि मिलें तौ मैं पूजूँ पहार," अर्थात अगर पत्थर पूजा से भगवान मिल सकते हैं तो वे पहाड़ की पूजा करेंगे। इस कथन से कबीर का उद्देश्य यह था कि भगवान की पहचान रूप और आकार से नहीं, बल्कि आत्मा और सच्चाई से होती है।

  5. हिंदू-मुस्लिम एकता – कबीर ने हिंदू-मुस्लिम दोनों धर्मों को एकता की भावना में बांधने का प्रयास किया। उनका प्रसिद्ध वाक्य है:
    "हिंदू मुए राम कहि, मुसलमान खुदाई,"
    जिसका अर्थ है कि हिंदू राम के नाम से मरे हैं और मुसलमान खुदा के नाम से। कबीर ने यह दिखाया कि सभी धर्मों का मूल एक है और हमें धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठना चाहिए।

  6. गुरु का महत्व – कबीर ने गुरु की महिमा का बखान किया और उन्हें मार्गदर्शन देने वाला बताया। उनका प्रसिद्ध उद्धरण है:
    "गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय,"
    अर्थात, जब गुरु और भगवान दोनों सामने खड़े हों तो मैं सबसे पहले गुरु के चरणों में प्रणाम करूंगा, क्योंकि गुरु के बिना भगवान का ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है।

निष्कर्ष
संत कबीर का जीवन और उनका दर्शन हमें यह सिखाता है कि धार्मिकता और भक्ति किसी एक धर्म या परंपरा में बंधी नहीं होती, बल्कि यह सार्वभौमिक है। उनके निर्गुण ब्रह्म, प्रेम और धार्मिक एकता के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। कबीर का संदेश था कि ईश्वर एक है, और उसकी प्राप्ति का कोई निश्चित मार्ग नहीं है—वह किसी रूप, आकार या धर्म से परे है। उनकी कविताएँ न केवल भक्ति मार्ग को स्पष्ट करती हैं, बल्कि हमारे भीतर के सत्य को पहचानने की प्रेरणा भी देती हैं।

https://youtu.be/GOmH0sWTrnA?si=RbkPXA8Nh_ulnOTk